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यति सामान्य देशना विधि : २७९ कोटिध्वज हो सकता है अतः एसा होना संभव नहीं है यह दोप संभव नहीं अर्थात् ऐसा हो भी सकता है। ऐसा शास्त्रमें कहा जाता है कि कई जन जो पहले तुच्छ व्यवहारवाले थे वे भी भाग्योदयसे थोडे ही समयमें कोटिध्वज हो गये तथा उस व्यवहारको प्राप्त हुए। ऐसा विश्व आचार्यका मत है। यह सम्राट्के मतके अनुसार है। अन्यतरवैकल्येऽपि गुणवाहुल्यमेव सा तत्वत इति
सुरगुरुरिति ॥१९॥ (२४५) मूलार्थ-किसी गुणके अभावम भी बहुत गुणोंके विद्यमान होनेसे वही वस्तुतः योग्यता है-ऐसा सुरगुरु-वृहस्पतिका मत है ॥१९॥
विवेचन-किसी गुणके अभावमें भी (विकलता न होने पर भी), गुणवाहुल्यमेव-बहुत गुणोंका होना, सा-योग्यता (आवश्यक), तत्त्वता-वस्तुतः।
बृहस्पतिका मत है कि किसी गुणकी कमी हो तब भी (या कमी न हो) गुणोंकी बहुलता ( अधिकता) वास्तवमें योग्यता है। प्रत्येक मनुष्य सब गुणोसे संपूर्ण नहीं होता। बहुत गुणोसे अवगुण अपने माप मिट जाता है। अतः चौथे भाग या आधे भागके गुणोंके कम होनेसे उसकी चिंता न करें।
सर्वमुपपन्नमिति सिद्धसेन इति ॥२०॥ (२४६) . मूलार्थ-बुद्धिमान पुरुष जो भी योग्य माने वह सर्व योग्य है ऐसा सिद्धसेनका मत है ॥२०॥