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________________ २७४ : धर्मविन्दु निर्गुण हो तो भी विशिष्ट कार्यके लिये आवश्यक गुण पहले ही प्राप्त करता है वैसे ही गुगके अभावमें भी विशेष कार्य हो सकता है । उसमें विरोध नहीं है । जैसे दरिद्री भी अकस्मात् राज्य आदि प्राप्त कर सकता है । अतः गुणरूप कारण बिना भी कार्यकी उत्पत्ति संभव है। अकारणमेतदिति व्यास इति ॥१०॥ (२३६) .. मूलार्थ-यह (उपर्युक्त) निष्कारण है ऐसा व्यास कहते हैं। ॥१०॥ विवेचन-अकारण-प्रयोजन रहित, निष्फल, एतत्-वाल्मीकिका कहा हुआ वाक्य, इति-इस प्रकार कहते हैं कौन ? व्यास'कृष्ण द्वैपायन व्यास । कृष्ण द्वैपायन व्यास कहते हैं कि वाल्मीकिका कहना न्याय युक्त नहीं। यह व्यर्थ व प्रयोजनहीन है इस · कारणके अयोग्य होनेका कारण बताते हैंगुणमानासिद्धौ गुणान्तरभावनियमा भावादिति ॥११॥ (२३७) __ मूलार्थ-गुणमात्रकी अनुपस्थिति में अन्य गुणोंकी उत्पत्ति निश्चित ही नहीं हो सकती ॥११॥ विवेचन-गुणमात्रस्य-स्वाभाविक या तुच्छ गुण, ,असिद्धौअनुपस्थित, गुणान्तास्य-अन्य विशेष गुण आदि, भावा-उत्पत्ति, नियमात-अवश्य, अभावात-न होना।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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