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________________ यति सामान्य देशना विधि : २६७ ६. संसारविरक्ति - उत्पन्न होती है। आत्मा ही नित्य है, अन्य सब अनित्य है - ऐसा जो समझ लेता है उसकी विरक्ति कभी क्षय नहीं होती । वह साधु समुदायका आभूषण हो जाता है । ७. अल्प कपाय - क्रोध, मान, माया व लोभ बहुत कम होने चाहिये । इनके अधिक होनेसे वह चारित्र पदको कलंकित करता है । ८. हास्यादि - थोडे हो । हास्य, रति, अरति, भीति, जुगुप्सा और शोक छः, नौ नोकषाय या दोष कहलाते हैं। ये अल्पमात्रामें होने चाहिये । ९. कृतज्ञ - कृतघ्नी बहुत बडा पापी है"। कृत गुणको कभी न भूले। १०. विनयी - विनयमूलो धम्मो' धर्मका मूल विनय है । यह एक दीक्षार्थीका आवश्यक गुण है । ११ दीक्षाके पहले ही लोकप्रिय हो - उत्तम चारित्रवान हो, सब उसका बहुमान (आदर) करते हो । जो विषयी या दुराचारी है उसके प्रति पूज्यभाव नहीं हो सकता, लोग उसके उपदेशसे दूर रहते हैं अतः वह स्व-परका हित नहीं कर सकता ! १२. अद्रोहकारी - 'विश्वासघात एक पाप है" । किसीका द्रोह करनेवाला न हो । १३. कल्याणांग - सर्व इन्द्रिय शुभ हो तथा भव्य मुखाकृति मंग दोषवाला प्रभावोत्पादक नहीं होता । ऐसेको आचार्यपद देनेकी आज्ञा नहीं है ।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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