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________________ प्राग्वचन पूज्य आचार्यचर्य श्रीमद् हरिभद्रसरिजीने रचा हुआ 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थका यह भाषान्तर है। श्रीहरिभद्रसरिजीके जीवन और कवन विषयमें उपोद्घातमें काफी प्रकाश डाला गया है। अत एव यहां उस विषयमें न लिखते हुए इस ग्रन्थका हिंदी भाषान्तर प्रगट करनेको हम क्यों उद्यत हुए इस विषयमें कुछ कह देना उचित है। उपोद्घातमें कह ही दिया है कि जैन तत्त्वज्ञानके विषयसागरको मानो गागरमें भर दिया हो वैसा इस ग्रंथमें प्रतीत होता है। इसमें प्रावेशिक ज्ञानके लिये जीवनके हर पहलु पर प्रकाश डाला गया है। इस ग्रन्थकी निरूपण शैली ही ऐसी है कि जैन, जैनेतर कोई भी इसका अध्ययन करे तो सरलतासे जैन पदार्थीका और विवेकपूर्वक जीवन कैसे बीताया जाय उसका पूरा ख्याल आ सकता है। महात्मा गांधीजीने भी जैनधर्मका वास्तविक ज्ञान इस पुस्तकसे ही प्राप्त किया था, दूसरे विद्वानोंने भी इसीको पढके जैन दर्शनका रहस्य प्राप्त किया है। इसलिये ऐसे ग्रन्थको प्रगट करना हमारे लिये परम आवश्यक प्रतीत हुआ। पूज्य त्रिपुटी महाराजोंने मेरठ जिल्ला, यू. पी. आदि प्रदेशोंमें भ्रमण करके जो नये जैन बनाये उन लोगोके पठनके लिये हिंदी पुस्तकोका प्रगट करना आवश्यक था और इसीलिये पू. मुनिराज श्रीज्ञानविजयजी और स्व. पू. मु श्रीन्यायविजयजी महाराजने, अमदावादके नागजी भूधरकी पोलके संघने सं० १९९९ भाद्रपद सुदि ? के रोज फंड इकट्ठा करके 'हिंदी जैन साहित्य प्रचारक
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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