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________________ ~ ~ ~ ~ ~ २६२ : धर्मविन्दु मूलार्थ-शुद्ध व सदनुष्ठान अल्प होने पर भी अरिहंतको मान्य है क्योंकि तत्त्वसे प्रत्याख्यानका स्वरूप समझ जाने पर बहुत करनेका भी विचार होता है। विवेचन-विशुद्ध-निरतिचार, सत-सुंदर, अनुष्ठान-स्थूल प्राणातिपात विराण आदि अणुव्रतका पालनरूप आचरण, स्तोकंथोडा भी, क्योंकि यह स्थूलका ही पालन है, मतम्-मान्य, तत्त्वेन तात्त्विकरूपसे, अतिचारकी कलुपिततासे दूषित नहीं, तेन च-विशुद्ध अनुष्ठानके करनेसे, प्रत्याख्यान-आश्रव व निरोध लक्षणवाला, ज्ञात्वा-गुरुके पास श्रुतधर्मसे प्रत्याख्यानके फल व हेतुको मली प्रकारसे जानकर सुबहपि-सर्व पापस्थानका त्याग करनेको भी तैयार होगा। श्रावकके बार व्रत जो यतिधर्मकी अपेक्षा कम हैं निरतिचार रीतिसे पालन हो वे प्रभुको मान्य हैं। क्योकि इससे धर्मका पालन करनेवाला पञ्चक्खाणके स्वरूपको उसके हेतु तथा फलको भली प्रकारसे जानता है यह प्रगट होता है। जब वह इसे तत्त्वरूपसे यह जानता है कि वह आश्रव व निरोध करनेवाला है तो वह अधिक पच्चक्खाण भी लेनेको प्रेरित होगा। सक्षेपमे जो निरतिचार थोडा भी व्रत पालन करता है वह व्रतके स्वरूप, हेतु व फलको जानता है, अतः उसे योग्य समय पर अधिक व्रतकी भी प्राप्ति होगी। इति विशेषतो गृहस्थधर्म उक्तः, सांप्रतं यतिधर्मावसर इति यतिमनुवर्णयिष्याम इति ॥१॥ (२२७)
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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