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________________ -२५२ : धर्मविन्दु . --शरीर रोगरूपी सोका निवास स्थान है, संयोग, वियोग दोषसे दूषित है। संपत्ति पर भी विपत्तिकी कटाक्षदृष्टि है अतः इस संसारमें उपद्रव रहित कुछ भी नहीं है। इस प्रकार इस संसारकी क्षणभंगुरता व असारताका विचार करे। जगत्की सर्व वस्तुएं भयसे आक्रांत है केवल वैराग्य ही अभयका कारण है। इस प्रकार संसार-स्वरूपका विचार करे। तदनु तन्नैर्गुण्यभावनेति ।।८९।। (२२२) मूलार्थ-तब उसकी निस्सारताका विचार करे ।।८९॥ विवेचन-तन्नैर्गुण्यभावना- भवस्थिति या संसारकी असारता या निस्सारताका चिंतन । संसार असार है इस भावनाका विचार करना चाहिये, जसे-- "इतः क्रोधो गृध्रः प्रकटयति पक्षं निजमितः, शृगाली तृष्णेयं विवृतवदना धावति पुरः । इतः क्रूरः कामो विचरति पिशाचश्चिरमहो, स्मशानं संसारः क इह पतितः स्थास्यति सुखम् !” ॥१३७॥ -~~-इधर क्रोध नामक गृध्र अपने पंख फैलाये हुए बैठा है, उघर तृष्णा नामक शृगाल मुख फाडे हुए आगे आगे दौडा जा रहा है और उधर कामरूप भयंकर पिशाच विचर रहा है। इस संसाररूपी स्मशानमें पटा हुआ कौनसा प्राणी सुखी रह सकता है ? अर्थात् क्रोध, तृष्णा व काम जहां तीनो लगे हुए हैं ऐसे इस संसारमे कोई सुखी नहीं रह सकता।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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