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________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : २४९ विशेष कहते हैं-- यथोचितं तत्प्रतिपत्तिरिति ॥४२॥ (२१५) मूलार्थ-यथाशक्ति उस विधिको अंगीकार करे॥८२॥ विवेचन-अपने सामर्थ्यके अनुसार संध्याविधिका, जो आगे कही जायगी, श्रावक अंगीकार करे तथा उनमें प्रयत्न करे । वह किसी है सो कहते हैंपूजापुरस्सरं चैत्यादिवन्दनमिति ॥४३॥ (२१६) मूलार्थ-संध्यापूजा सहित चत्यादिका वंदन करे ॥८॥ विवेचन-उस समयके योग्य पूजा करके-धूप आरतीके बाद जिनमंदिर तथा गृहमंदिर (यदि हो तो) का वंदन तथा गुरु व मातापिताका वंदन करे। तथा-साधुविधामणक्रियेति ॥८४॥ (२१७) मूलार्थ-और साधुको विश्राम देनेकी क्रिया करे।।.४॥ विवेचन-साधूनां निर्वाण या मोक्षकी आराधनाके योगमें प्रवृत्त पुरुषोंको, और स्वाध्याय, ध्यान आदि अनुष्ठानते थके हुए ऐसे साधुओंको, विश्रामणा-सेवा करनेवाले अन्य साधुकी अनुपस्थितिमें उनकी सेवा करके उनको विश्राम देना-अर्थात् वैयावच करना। साधुलोग स्वाध्याय, ध्यान और योगमें तल्लीन होनेसे उनको जो थकान होती है उसे वैयावच्च द्वारा दूर करनेका प्रयत्न करे। । तथा योगाभ्यास इति ॥८५॥ (२१८)
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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