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________________ २४६ : धर्मविन्दु ___--जिनपूजा, उचित दोन, पोज्य परिजनोंकी संभाल, उचित कार्य और योग्य स्थान ग्रहण करना तथा पचक्खाणको याद करनाये कार्य भोजनके पहले करनेके हैं। तथा तदन्वेव प्रत्याख्यानक्रियेति ॥७६|| (२०९) मूलार्थ-भोजन उपरीत पञ्चक्खाणं करे ॥७६।। विवेचन-तदन्वेव- भोजनके अनन्तर, प्रत्याख्यान-दुविहार, तिविहार आदि । अशन, पनि, खादिम, स्वादिम-इन चार आहार से दो, तीन या चारोंका त्याग करना। ___ भोजन कर लेनेके पश्चात् यथाशक्ति दुविहार, तिविहार या चौविहारका पञ्चक्खाण करे । आहारका संवरण करे। तथा-शरीरस्थिती प्रयत्न इति ॥७७॥ २१०) भूलार्थ-शरीरकी स्थिति, उसकी संभालके लिये प्रयत्न करे या शरीररक्षाका प्रयत्न करे ।।७७॥ विवेचन-शरीरस्थिती- तेलमर्दन, मालिश, स्नान आदि क्रियायें जो शरीररक्षा निमित्त की जावे । यत्न:- आदर। शरीरकी स्थिति अर्थात् शरीररक्षा व उसके नीरोग बने रहनेके लिये आवश्यक कार्योंको आदरपूर्वक करे । शरीर सारी धर्मक्रिया व ज्ञानप्राप्तिका अति आवश्यक साधन है, अत: उसकी रक्षा पर, अवश्य ध्यान दे। कहा है कि "धर्मार्थकाममोक्षाणां, शरीरं कारणं यतः। ततो यत्नेन तद्रक्ष्य, यथोक्तैरनुवर्त्तनैः' ॥१३१॥
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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