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गृहस्थ विशेष देशना विधि : २१५
यह सत्य है पर अनाभोग या अतिचारसे ऐसा हो तो यह अतिचार ही है ।
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सामायिक ' द्विविधं त्रिविधेन' सावध व्यापारका व्याग करने के पञ्चक्खाणरूप है, अतः मन, वचन, कायासे न करूं, न कराक ऐसा व्रत लिया जाता है । उसमें मन दुष्प्रणिधान आदिसे सावध चिंतन आदि पञ्चक्खाणभंग होता है अतः सामायिकका अभाव है । उसके भंग होनेसे प्रायम्बित करना होता है । मनका दुष्प्रणिधान - सावध चिंतन बहुत मुश्किल से छूटता है कारण कि मन अस्थिर होता है । अतः यह सिद्ध होता है कि सामायिक लेनेसे न लेना ज्यादा अच्छा है- - इस शकाका उत्तर इस प्रकार है
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ऐसा नहीं है । "मन, वचन, कायासे न करना, न कराना"इस तरह " द्विविधं त्रिविधेन " सामायिक व्रत लिया जाता है । उससे " मनसे सावद्य न करूंगा " आदि छ पञ्चक्खाण हुए । उसमें एकका भग होता है और शेष पांच रहते हैं उससे सामायिक बिल्कुल नहीं ऐसा नहीं है । मनदुष्प्रणिधानका प्रायश्चित्त 'मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ' ऐसा करनेसे शुद्धि हो जाती है । सर्व विरति सामायिक के लिये भी ऐसा ही कहा गया है। गुप्तिका भंग होने पर ' मिथ्या दुष्कृत - मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ' - प्रायश्चित कहा गया हैं। कहा है कि
'घीओ उ असमिओमित्ति कीस सहसा अगुत्तो वा ? " ॥
- दूसरे अतिचार अर्थात् समिति-गुप्तिका भंगरूप अतिचार की
शुद्धि " अरे मैं सहसा अगुत्तो— बिना गुप्तिवाला या बिन समिति -