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________________ २१० : धर्मविन्दु इसमें कई दोष हैं, जैसे उसका परवश बनना आदि। आजकल गुलामी प्रथाके बंद होने पर भी कहीं कहीं ऐसा होता है। ऐसे किसी प्राणीको बेचनेसे उसको जो लेनेवाला दुःख दे उससे भी पाप होता है। १०. विषवाणिज्य- विषका व्यापार या वेचना श्रावकको योग्य नहीं, उससे बहुतसे जीवोंकी विराधना होती है। ११. यन्त्रपीडन कर्म-तिल, गन्ने आदिको उसके यंत्रोंद्वारा दवानेसे रस आदि नीकालना- उसी प्रकार चक्की आदिसे आटा पीसना भी इसीमें आ जाता है। इससे वे सब एकेन्द्रिय जीव तो डरते ही है अन्य भी कई प्राणयोंकी हिंसा व विराधना होती है। १२. निलांछन कर्म-बैल आदि पशुओंको जलाना, उनके अंडकोश आदिको काटना- इससे उन प्राणियोंको बहुत कष्ट होता है। १३. दवदाव कर्म- वनको जलानेका कार्य- यह क्षेत्रकी रक्षाके निमित्त कहीं कहीं करते है, इससे कई सहस्र प्राणियोंका नाश होता है। किसी भी कारणसे हो, यह पाप ही है। १४. सरो-इद-तडागपरिशोपण-- जिसमे तालाब आदिका खेतके लिये अथवा किसी अन्य कारणसे शोषण करते हैं । इससे कई जलचर जीव मर जाते है और अपने तालाब आदि मछली मारनेवालोंको नहीं देना चाहिये । १५. असतीपोषण-योनि पोषण करनेवाली दासीको रखना, उसका पोषण करना तथा उनके व्यभिचारसे आजीविका चलाना। व्यभिचार ही पाप है तब उससे पैदा किया हुआ पैसा तो पापका
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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