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________________ १८४ : धर्मविन्दु जल आदि वस्तुओका रोकना, उनको बंध कर देना अथवा अपेक्षाकृत कम मात्रामें देना है। ये सब अतिचार क्रोध, लोभ आदि कषायसे जिसका अंतःकरण कलंकित हो और जो प्राणीओको अकारण ही मारता है या कष्ट देता है उसे लगते है। जो निरपेक्ष होकर ऐसा करे उसे अतिचार लगते हैं । जो सापेक्ष बंध आदि करे तो उसे अतिचार नहीं लगते । उसकी विधि 'आवश्यकचूर्णि' आदिसे उद्धृत करके यहां लिखते हैं बंध द्विपद व चतुष्पद ( मानव तथा पशु) दोनोका होता है। वह दो प्रकारका है-अर्थसे तथा अनर्थसे । जो अनर्थ या निरर्थक वध, वह करना योग्य नहीं । सार्थक बंधके दो भेद हैंसापेक्ष और निरपेक्ष । जो पूर्णतया निश्चल प्रकारसे बांधा जाय वह निरपेक्ष । जो बंध-रस्सीकी गांठ आदिसे बांधा जावे और अग्नि आदिके प्रकोपके समय छोडा जा सके या काटा जा सके वह सापेक्ष बंध है । पशुके इस प्रकार बंधके अलावा मानवका बंध इस प्रकार है-दास, दासी, चोर अथवा प्रसादी पुत्रको यदि वह हिलडुल सके और उनका रक्षण हो सके, अग्नि आदिके भयसे नष्ट न हो। इनको सापेक्ष या सार्थक बंध कहते है, जो किया जा सकता है । पर श्रावकको ऐसे ही द्विपद व चतुष्पदोका सग्रह करना चाहिये, जो बिना बांधे भी रह सके ॥१॥ - वध भी उसी तरह है । निर्दय रीतिसे मारना जो निरपेक्ष वध है, सर्वथा त्याज्य है। वहा वधका अर्थ प्राणहानि नहीं, ताडना या
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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