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________________ गृहस्य विशेष देशना विधि : १५९ देख लिया है. महासत्व - शुद्ध श्रद्धा प्रगट होनेसे प्रशंसनीय पराक्रमवाला, परं संवेगम्-उत्कृष्ट संवेगवाला । विशेष धर्मकी व्याख्या करते हैं । उसका अधिकारी बताते हैंजिम श्रोताका सत्य धर्मश्रवण करनेसे मिध्यात्व मोह आदि मन्त्रिनताका नाश हो चुका है, जिसने चालवलसे जीवादि वस्तुवाद व तत्त्वको समझ गया है और शुद्ध श्रद्धासे उत्कृष्ट संवेग को पा चुका है तथा शुद्ध श्रद्धासे महान पराक्रनवाले धर्मका अधिकारी है। संवेग पाने पर वह क्या करे. कहते हैं " 1 धर्मोपादेयतां ज्ञात्वा संजातेऽच्छोत्र भावतः । दृढं स्वशक्तिमालोच्य ग्रहणे संप्रवर्तते ||१४|| मूलार्थ - धर्मकी उपादेयता जानकर, धर्म के प्रति भावना सहित, स्वशक्तिका दृढ विचार करके मनुष्य उसे अंगीकार करने की प्रवृत्ति करता है । विवेचन - धर्मोपादेयताम् - धर्म ग्रहण करने लायक है, ऐसा भाव रखे, या ज्ञात्वा - जानकर, संजातेऽच्छ:- धर्म प्राप्तिकी इच्छा या ऐसा परिणाम होना, दृढं पूर्णतया सूक्ष्मरीतिसे, स्वशक्तिअपने सामर्थ्यका विचार करके, ग्रहणे - योगवंदन आदि शुद्धिरूर विधिले तत्पर होकर धर्म ग्रहण करनेमें, संप्रवर्तते ठीक प्रवृत्ति करे। " वह धर्मका अधिकारी धर्मकी उपादेयताको जानता है । धर्मकी उपादेयता कैसी है? कहते हैं
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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