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________________ १५४ : धर्मबिन्दु इस प्रकार देशनाविधिके बारेमें कह कर उसका उपसंहार करते हुए कहते हैंएवं संवेगकृद् धर्म, आख्येयो मुनिना परः। यथाबोधं हि शुश्रूषो वितेन महात्मना ॥१०॥ 1. मूलार्थ-इस प्रकार धर्मभावनावाला महात्मा मुनि, श्रोताको संवेग करनेवाला उत्कृष्ट धर्म अपने बोधके अनुसार कहे ॥१०॥ विवेचन-एवं-इस प्रकार, संवेगकत्-श्रोताको संवेग पैदा करानेवाला, आख्येय:-कहना, मुनिना-साधुद्वारा अन्य कोई धर्मोपदेश करनेका अधिकारी नहीं, पर:-अन्यतीर्थी धर्मसे अति उत्कृष्ट, यथाबोधम्-अपने बोधानुसार,-धर्माख्यानका यथार्थ बोध न होनेसे विपरीत मार्गकी प्ररूपणा होकर अनर्थ संभव है। शुश्रूषो:धर्मश्रवणकी इच्छावाले श्रोताको, भावितेन-धर्मके प्रति वासना या प्रेमसे जिस मुनिका हृदय वासित हो, क्योकि " भावसे भाव पैदा होता है" और गीतार्थके आख्यानसे श्रोताके मनमें श्रद्धा आदि गुणोकी उत्पत्ति होती है। महात्मना-प्रशंसनीय आत्मावाला, अनुग्रह करनेमे तत्पर। इस प्रकार न्यायसे संवेग उत्पन्न करनेवाला धर्म श्रोताको कहना चाहिये । मुनि गीतार्थ हो तथा भावना व श्रद्धावाला हो । सवेगका लक्षण कहते हैं । "तथ्ये धर्मे ध्वस्तहिंसा प्रबन्धे, देवे रागद्वेष-मोहादिमुक्ते। साधौ सर्वग्रन्थसंदर्भहीने, संवेगोऽसौ निश्चलो योऽनुरागः" ॥२६॥
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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