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________________ गृहस्थ देशना विधि : १४९ केवल आत्मा शाश्वत है। इस तरह नित्य, अनिन्यका फर्क समझ कर अनित्य वस्तुओं परसे गगको कम करना ही अनित्यभावना है। (२) अशरणभावना-आमाका कोई भी आवार नहीं है। माता, पिता. स्वजन, बांधव आदि माने जाते हैं पर वे निश्चयतः किसी प्रकारकी शरण देनेवाले नहीं हैं। आत्माके ज्ञान, दर्शन व चारित्र आदि गुण ही आत्माकी तरह निय हैं। मृत्युके समय शुम, अशुभ कर्म ही साथ आते हैं, अन्य कोई भी वस्तु न उनके साथ जातो है, न मृत्युमुखमैसे उसे छुडा सकती है। केवल आत्मा नित्य है, अन्य सब अनिय है। उसीका शरण लेना, जो आत्मिक गुणोंमें वृद्धि करे। अन्य सब वृथा हैं। कोई शरण या आधार नहीं । गुरु भी गह बनानेवाला है, चलना स्वयंको है, अतः स्वाश्रयी बनना-यह अशरणभावना है। (३) संसारभावना- मसारचक्र अनन्तकालसे चल रहा है और जीव उसमें अपने अपने कमौके अनुरूप फल भोग करता है। कई जीवोंके सबंधमें यह आत्मा कई वार भिन्न भिन्न भवोमें आया है पर किसीका संबंध स्थायी नहीं, अत' आसक्तिरहित बनना । राग मनुष्यका संसार बढाता है। आसक्ति- ममत्व ही रागे है । अपने संबंध में आनेवाली आत्माका अधिक कल्याण करनेकी भावना प्रेमसे होती है, जो स्वाभाविक धर्म है अत. निस्पृही रहना। अज्ञानी बाह्य वस्तुमें सुख खोनता है पर सुख आत्मामें ही रहा हुआ है। संसारका सुख क्षणभंगुर व इन्द्रजाल समान है । संसारके स्वरूपका मनन करना-संसारभावना है।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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