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गृहस्थ देशना विधि : १३५ पर हम देखते हैं कि हिंसा (मारने पर प्राणिका मरना) तथा क्रोध आदि वास्तवमें होते हैं । अतः आत्मा परिणामी है उसका पर्यायान्तर व विनाश स्वभाव है । कहा है
"तत्पर्यायविनाशो, दुःखोत्पादस्तथा च संक्लेशः । एप वधो जिनभणितो, वर्जयितव्यः प्रयत्नेन ' ॥९॥
-आत्माके पर्यायका नाश करना, आत्माको दुःख देना, और क्लेश करना, उस सवको जिन भगवान हिंसा कहते हैं उसका यत्नसे त्याग करना चाहिये। तथा-अनित्ये चापराहिंसनेनेति ॥५८॥ (११४)
मूलार्थ-यदि सर्वथा अनित्य हो तो अन्यसे हिंसा हो नहीं सकती ॥५॥
विवेचन-अनित्ये च-सर्वथा अनित्य, क्षण क्षणमें नाश होनेवाका, अपरेण-किसी शिकारी द्वारा, अहिंसनेन-न मार सकनेसे किसी भी प्राणीकी हिंसा असंभवित है।
यदि आत्माको पूर्णतः अनित्य मानें तो प्रतिक्षण नष्टे होती है, अतः वह अपने आप मरती है दूसरे अन्य कोई (शिकारी आदि) किसी भी प्राणिका वध नहीं कर सकता। अत: हिंसा नहीं हो सकती, व प्रतिक्षण मरता है तो कौन उसे मारनेवाला है ? यदि आत्मा नित्य है तो मारता ही नहीं अतः न क्रोध होगा, न दुःख, न हिंसा । यदि अनित्य ही है तो अपने आप हर क्षण मरनेसे उसे मारनेवाला कौन ? और मरनेवाला कौन ? अतः वह न एकान्त नित्य है, न एकांत अनित्य ही।