SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गृहस्थ देशना विधि : १३१ विवेचन-हिंसादय:-हिंसा, असत्य आदि जीवके परिणाम विशेष, तद्योगहेतवा-बन्धका फल संसार होता है, वही वस्तुत पापरूप बंध होता है उसका कारण है (हिंसादि), तदितरे-हिंसा आदिसे भिन्न-अहिंसा आदि, तदितरस्स-उस (वंय से भिन्न मोक्ष। वस्तुतः जीवको संसारमे परिभ्रमण करानेवाला पाप है। उसका कारण जीवके अशुभ परिणाम हैं, जो पाप बन्धके हेतु हैं और उसीसे संसार भ्रमणा वढती है। पाप बन्धके कारण"हिंसानृतादयः पञ्च, नत्त्वाश्रद्धानमेव च । क्रोधादयश्च चत्वारः, इति पापस्य हेतवः" ॥२१॥ --हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन व परिग्रह ये पाच अव्रत, तत्त्वमे अश्रद्धा ( मिथ्यात्व ) तथा क्रोध, मान, माया, लोभ नामक चार कपाय-यह इस पापबन्धके हेतु है। उससे भिन्न अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह आदि पांच व्रत, सम्यक्त्व और चारों कषायोंका त्याग ये वंधसे 'भिन्न मोक्षके कारण है। __ “अनुरूपकारणप्रभवत्वात् सर्वकार्याणामिति"। -~सव कार्य अपने कारणके अनुरूप होते हैं। बघहेतुसे बन्ध व मोक्षहेतुसे मोक्ष होता है। बन्धका स्वरूप कहते हैं-- प्रवाहतोऽनादिमानिति ॥५०॥ (१०८) मूलार्थ-बन्ध प्रवाहसे अनादि हैं ॥५०॥
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy