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________________ गृहस्थ देशनो विधि : १२१ जैसे स्वर्ण खरीदते समय कसौटी पर देखने पर शुद्ध मालम हो तभी अंदरसे शुद्ध है या नहीं उसकी शंका रहनेसे उसे काटकर या छेद कर देखा जाता है। उसी भांति कषशुद्ध धर्ममें भी छेदकी आवश्यकता है। धर्ममें विशुद्ध बाह्य चेष्टा ही छेद है। वह बाह्य शुद्ध चेष्टा जिसमें विधि-निषेधके अनुकूल मार्ग पर चलते हुए उनसे आत्माको बाधा न पडे इस प्रकार कार्य करते हुए अपनी आत्माको प्राप्त होता है। उसे प्राप्त करके भी अतिचार तथा अनाचार रहित उत्तरोत्तर वृद्धिका अनुभव करे। ऐसी विशुद्ध बाह्य क्रियासे विधिनिषेधको उत्तेजन मिलता है। जिस धर्ममें ऐसी शुद्ध चेष्टाका वर्णन है वह छेदशुद्ध है । अतः जहां उपरोक्त विधि-निषेध मार्गकी सहायक शुद्ध क्रिया ( बाह्य )का यथार्थ वर्णन है वही छेदशुद्ध धर्म है । जैसे कर्ष व छेदशुद्ध स्वर्णमें भी किसी वस्तुकी मिलावट हो यो होने पर भी वैसा ही हो तो उसकी परीक्षाके' लिये अग्नि परीशामें डाला जाता है और तापशुद्ध होने पर पूर्ण शुद्ध माना जाता है, इसी तरह धर्ममें भी कष व छेद शुद्ध होने पर भी ताप परीक्षा मावश्यक है। धर्ममें ताप किसे गिनना उसे ताते हुए शास्त्रकार कहते हैंउभयनिवन्धन भाववादस्ताप इति ॥३७॥ (९५) मूलार्थ-कष व छेदके परिणामी कारण जीवादि भावकी प्ररूपणा ताप है ॥३७॥ विवेचन-उभयोः-कष व छेदका, निवन्धनम्-परिणामी रूप कारण, भावा-जीवादि लक्षण, वाद-प्ररूपणा ।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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