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________________ गृहस्थ देशना विधि : ११९ - इस विश्व में शब्द मात्रसे सबको धर्म कहते हैं पर कौनसा सत्य है ऐसा विचार नहीं करते । धर्म शब्द समान होने पर भी वे विचित्र भेदोंके कारण भिन्न भिन्न है अतः शुद्ध दूधकी तरह परीक्षा करके मान्य करना चाहिये || जैसे ठगे जानेके भयसे बुद्धिमान व्यक्ति स्वर्णकी परीक्षा करके उसे खरीदते है वैसे ही सर्व धन देनेमे समर्थ, अति दुर्लभ तथा जगत हितकारी श्रुतधर्मको भी परीक्षा करके ग्रहण करते हैं । उस परीक्षाका उपाय कहते हैं कषादिप्ररूपणेति ॥ ३४ ॥ (९२) मूलार्थ - कषादिकी प्ररूपणा करना चाहिये ||३४|| विवेचन - केवल स्वर्णकी समानतास अज्ञ लोगोमें विचार बिना शुद्ध या अशुद्ध स्वर्ण पर मुग्धता से प्रवृत्ति होती है, पर विचक्षण पुरुष कष, छेद और ताप तीनों प्रकारसे उसकी परीक्षा शरू करते हैं, वैसे ही यहा श्रुतधर्ममें भी परीक्षा करनेके योग्य कष आदिकी प्ररूपणा करना । वह कष आदि कहते हैं विधिप्रतिषेधौ कष इति ॥ ३५ ॥ (९३) मूलार्थ - विधि और निषेध यह कसौटी है ||३५|| विवेचन - विधि - अविरुद्ध अर्थात् अनुकूल कर्त्तव्य बताने वाला वाक्य विधि वाक्य कहलाता है । जैसे तप, ध्यान आदि करना । प्रतिषेध - किसी कामका निषेध अर्थात् वह नहीं करना, हिंसा, असत्य, चोरी आदि नहीं करना, कष- यह विधि तथा निषेध कष
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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