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उनके पास दीक्षा ली थी। सूरिजीने स्वयं उनको व्याकरण साहित्य और दर्शन शास्त्रोंका अभ्यास करवा कर निपुण बनाये थे ।
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सूरिजी सत्ताकालमें बौद्ध दर्शनकी प्रबलता थी । कितनेक देशों में बौद्ध धर्मने राजाश्रय प्राप्त कर लिया था । मंत्र और तंत्र के प्रभावसे वौद्ध दर्शनका प्रसार उस कालके जनसमुदायमें बडी शीघ्रतासे हो चुका था । जैनोके साथ वे बडी स्पर्धा कर रहे थे । युक्ति जब लाचार हो जाती थी तब वे तात्रिक प्रयोग जुटाते थे और अपनी बोलबाला उड़ाते थे । बौद्ध दर्शनके अभ्यास के दिये बौद्ध विद्यापीठों में सब प्रकार की सुविधा मिलती थी और इसलिये विद्यार्थीगण बडी संख्या में आकर वहीं विद्याध्ययन करता था । उसमें पढे हुए विद्यार्थीकी प्रतिष्ठा सर्वमान्य होती थी । सूरिजी के शिष्य हंस और परमहंस को भी इस कारण बौद्ध विद्यापीठमें जाकर बौद्ध दर्शनका ज्ञान प्राप्त करनेकी वढी आतुरता होने लगी । उन्होंने अपनी मनोगत भावना सूरिजीको व्यक्त की । निमित्तशास्त्र के ज्ञानसे उन्होंने भाविकालमे आनेवाला अपाय जानकर उनको अनुमति नहीं दी । भवितव्यता की आंधी विवेकशील आत्माको भी चकाचौध कर घीसट जाती है । वे अपनी धून में सवार होकर बौद्ध विद्यापीठमे चल पडे
बौद्ध विद्यापीठमें बौद्ध भिक्षुका वेष बदल कर ही वे रह सकते थे । हंस और परमहंस क्रमशः बौद्ध दर्शनका अभ्यास करने लगे । वे विद्वान तो थे ही और दर्जनो का अभ्यास भी उन्होने किया था, इसलिये बौद्ध ग्रन्थोके मर्भ पर उन्होने अपना ध्यान जुटाया । अपनी अतुल वुद्धिप्रभासे थोडे समयमें रहस्य ग्रंथोको उन्होंने कंठस्थ कर