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________________ गृहस्थ देशना विधि . १०७ बुरा असर होकर वह ( शिष्य ) उपदेश तथा उपदेशक दोनोसे भागता है। तथा-अपायहेतुत्वदेशनेति ॥२३।। (८१) मूलार्थ-और अनर्थ (दुःख के कारणोंको बतावे । विवेचन-अपायानाम्-उन अनर्थो का, जो इस लोक तथा परलोकमें होना संभव है और जो जाने जा सकते हैं। हेतुत्वम्दुःखका कारण (असदाचार), उसके हेतु या कारणोका वर्णन करे। जैसे मनुष्य जब अपने स्वरूपको भूल कर प्रमाद दशामे पड जाते हैं, तो यह भूल जाते हैं कि अन्य जीव भी उसके जैसे ही हैं, तब वह अनेक असदाचारोंका सेवन करता है, अतः प्रमाद ही दुर्गतिका मूल है। जैसे "यन प्रयान्ति पुरुषाः, स्वर्ग यच प्रयान्ति विनिपातम् । तत्र निमित्तमनार्यः प्रमाद इति निश्चितमिदं मे" ॥६७॥ -पुरुष स्वर्ग नहीं पाते तथा अशुभ गतिमें उत्पन्न होते हैं या पतित होते हैं। मेरा निश्चित मत है कि उसका निमित्त कारण अनार्य प्रमाद ही है। प्रमाद ही असदाचार है, उससे ही अनर्थ परंपरा पैदा होती है तथा नरकके दुःख भोगने पड़ते हैं। नारकदुःखोपवर्णनमिति ॥२४॥ (८२) मूलार्थ-नारकीके दुःखोंका वर्णन करना चाहिये । विवेचन-नरकमें उत्पन्न नारक जीवोंके दुःखका वर्णन करे।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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