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________________ १०४ : धर्मबन्दु इन्द्रियां मिलती है । वह जनप्रिय और सम्मान प्राप्त करनेवाला होता | यह सब फल धर्म सेवनसे मिलते है - यह सब कहें ( इनका वर्णन सातवे अध्याय में करेगे) । 1 तथा - असदाचारगर्हेति ||१९|| (७७) मूलार्थ - और असत् आचारसे घृणा करें। विवेचन - जो आचार असत्, निन्द्य व अशुभ है वह असदाचार है । वह दस प्रकारका हैं Nation " हिंसानृतादयः पञ्च तत्त्वाश्रद्धानमेव च । क्रोधादयश्च चत्वारः इति पापस्य हेतवः " ॥६३॥ - हिंसा, मृषा, चोरी, मैथुन व परिग्रह- ये पांच तत्त्वमें अश्रद्धा, तथा क्रोध, मान, माया व लोभ ( ये चार कषाय ) ये कुल दस पापके हेतु (कारण) है । इन पापके कारणोंकी निंदा करे । इसमे सबसे बुरा तत्त्वमें अश्रद्धा या मिथ्यात्व है । सत्य तथा धर्मको असत्य व अधर्म मानना और अधर्म व असत्यको धर्म और सत्य मानना ही मिध्यात्व है । इसका त्याग उचित है | कहा है कि " न मिथ्यात्वसमः शत्रुः, न मिथ्यात्वसमं विषम् । न मिथ्यात्वंसमी रोगो, नं मिथ्यात्वंसमं तमः ॥६४॥ "" -- मिथ्यात्व के समान न शत्रु हैं, न विष है, न रोग है, न अंधकार। याने किसी भी शत्रु, विष, रोग व अंधकार से मिथ्यात्व ज्यादा बुरा है 1
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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