SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९४ : धर्मविन्दु समझे जा सके । पर भव्यत्व आदि बातें अहेतुग्राह्य है क्योकि ये उत्कृष्ट ज्ञानका विषय है और छद्मस्थ अवस्थावाले नहीं समझ सकते । इस लिये इसे तिरस्कार न करके ज्ञानवृद्धिकी राह देखें। सब ग्रथोकी रचना प्राकृत होनेका कारण यह है कि उस समय प्राकृत ही प्रचलित भाषा थी और बाल जीवोंको सरलतासे समझमें आ सकती थी, अतः ग्रन्थरचना इस भाषामें हुई । कहा है कि"वाल-स्त्री-मूढ-मूर्खाणां, नृणां चारित्रकाशिणाम् । अनुग्रहार्थे तत्त्वज्ञः, सिद्धान्तः' प्रातः स्मृतः ॥६०॥ —बाल, स्त्री, मूढ व मूर्ख मनुष्यो तथा चारित्र ग्रहण करनेकी इच्छावालों पर अनुग्रह करनेके लिये तत्त्वज्ञाने "सिद्धातकी रचना प्राकृतमें की है। अतः यह सिद्धांत-कल्पित नहीं है। प्रत्यक्ष, अनुमान तथा भागय प्रमाणसे भी अविरुद्ध सिद्ध होता है। इन दोनों प्रकारकी शंकासे रहित होना निश्शंकित दर्शनाचार' है अतः नि,शंक होकर अर्हत् शासतको प्राप्त हुआ जीव निशंक दर्शनाचार है। इससे 'दर्शन' तथा 'दर्शनवाले' (दर्शनी,) में अभेद उपचार कहा हैअर्थात् दर्शन व दार्शनिक एक ही है। जो उनमें एकांत मेद कहा हो तो अदर्शनीकी तरह फलाभाव होता है और उससे मोक्षाभाव होता है। बाकी-सात मेदोंमें भी यही भावना समझना । पाठातर-मन्द । प्रकृत।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy