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जैनधर्म स्वीकारकी तैयारी : ____ आज उनका गर्व खंडित हो चुका था। उनको अपना पांडियमद चुभने लगा था क्योकि उनके दृष्टिविष पर संजीवनसा वह सिंचन नया जीवनपरिवर्तन कर रहा था। उनकी विचारपूत दृष्टिमें वह मूर्ति आई और वह बोल पडे-बोल पडे क्या लेकिन उस लोकको जो जिनमूर्तिके प्रथम दर्शनके समय मखौल ऊडाते हुए बोले थे उनको ही बज्जासे सुधारने लगेः
"वपुरेच तचाचष्टे, भगवन् ! वीतरागताम् ।
नहि कोटर संस्थेऽनौ, तरुर्भवति शाड्वलः ॥"
[--भगवन् । आपका शरीर ही वीतरागताको स्पष्ट कह रहा है, क्योंकि वृक्षकी बखौलमें अग्नि हो तो वृक्ष हराभरा नहीं रह सकता। ___ क्या अद्भुत परिवर्तन था। उस परिवर्तनकी आंधीमें उनके ज्ञानगर्वका वह बोजा ही हठ गया था, और पहिले सहसा बोले हुए कटाक्षाने उनको लज्जावनत कर दिया था।
वे आचार्यजीके पास बैठ कर विवेकशील वाणीसे उस गाथाका अर्थ पूछने लगे। आचार्यजीने हरिभद्रके हृदयको समाधान करते हुए जैन सस्कृतिकी इतिहासपरंपरा समझा दी, जैनदर्शनकी वह चमत्कृति, गांभीर्य और लाक्षणिकता सुनाई तब उस गाथाका अर्थ उनके लिये सहज हो गया। उनके ज्ञानके छोर पर जैनदर्शनके तत्त्वज्ञानकी तरंगे झपटाने लगी, इतना ही नहीं उनको ललकारने लगीः 'तुम भूले हो, तुम्हारी विद्याने विकृतरूप दिया था, उसको