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१७८: विन्तु ।
धर्मका चिन्तन, उसका प्रचपा, अनुष्ठान, देव व मनुष्य संपदा आदि कासशः धर्मबीजके अंकुर, डाली, नाल (घड) तथा पुष्प समान है ॥४८॥
यहा यह बताया है कि, दुःखी पर दुया, गुणानुराग व औचित्यपालन आदि धर्मके बीज़ हैं। कुल सागत अनिन्द्य धर्मका 'अनुष्ठान करनेवाला गृहस्थ शुभ भूमि है। ये वीज उसमें फलित होकर अंकुर, धड, डाल व पुष्प लाते हैं तथा अंशतः मोक्षरूपी फल भी लाते हैं। ऐसे गृहस्थ जिनका साधारण धर्म ऊपरले अध्याय में कहा है उनको धर्मदेशनासे उनके मन में धर्म पैदा होता है तथा धीरे धीरे फलित होकर क्रमशः मोक्षको देनेवाला होता है। कभी कभी भन्नत्याने पक जाने पर सहदेवी माता आदिकी तरह झमकी अपेक्षासे भी अकस्मात फल प्राप्त होता है। पर इससे विरोध नहीं उत्पन्न होता । प्रायः उनका ऊगना क्रमशः ही होता है अतः धर्ममें २।४ गुणस्थानक कहे है जो गृहस्थ के लिये सीढी पर चढनेका एक एक कदम है। ___यदि पात्र अच्छा न हो तो धर्मबीजका क्या होता है ? कहते हैवीजनाशो यथाऽभूमो, प्ररोहो वेह निष्फलः। तथा सद्धर्मवीजानामपान्नेषु विदुर्बुधाः ॥८॥ ____ मूलार्थ-जैसे 'ऊपर भूमिमें पड़ा हुआ चीज अंकुर हो जाने पर भी निष्फल जाता है वैसे ही अपात्र के प्रति धर्मका बीजारोपण हो वह भी नष्ट होता है।ऐमा पंडित कहते हैं।।८।।