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________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ७५ विवेचन-दुर्लभ- दुष्प्राप्य, हित- कल्याण करना, उत्तम मित्रोंके योग आदिको अनुकूल बनाना, अकाण्ड एव - वाल, युवा, मध्यम, वृद्ध किसी भी अवस्थाको न देखकर असमय ही आनेवाला, सर्व- पुत्र, कलत्र, वैभव आदि, न किन्चन- मृत्युसे बचानेमें असमर्थ अर्थात् कुछ नहीं। ____ यह मनुष्य जन्म दुर्टम है । इसमे मृत्यु किसी भी समय अकस्मात ही आं उपस्थित होती है उसको रोकनेमें कोई भी समर्थ नहीं हैं अतः आत्माको हित करना चाहिये ॥ ५ ॥ सति- इस जगतमें स्थित सब जन्तु तथा वैभव आदि, एतस्मिन्- मृत्यु, असारासु-मृत्युके निवारणमें अक्षम, असमर्थ, संपत्सु- धन-धान्य आदि सपत्ति लक्षण, अविहिताग्रहः- आग्रह या मूर्छा छोडकर, पर्यन्तदारुणासु- विराम या मृत्युके समय सैंकडों कष्ट देनेवाली, महात्मभिः- श्रेष्ठ आत्मावालोंसेमहात्माओं द्वारा। ऐसें असार इस संसार व संपत्तिकों जो दारुणं दु.ख देनेवाली है मच्छरिहित होकर महात्मा पुरुयोको उच्च प्रकारसे धर्मका सेवन करना चाहिये। मुनिचन्द्रसरि द्वारा विरचित धर्मविन्दु प्रारणकी टीकाका सामान्य गृहस्थ धर्म विधि नामक प्रथम अध्याय समाप्त । इस प्रकार सामान्य गृहस्थ धर्मके स्वरूपको बतानेवाले प्रथम अध्यायकी व्याख्या समाप्त हुई ॥
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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