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________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ७३ 1 धर्मश्रवण आदि तथा ऐसी प्रवृत्ति करना चाहिये। इस तरह शुश्रूषा आदि बुद्धि गुणोंसे यथार्थ ज्ञान प्राप्त करनेवाला व्यक्ति जिसकी बुद्धि इस कारण ही तीव्रताको प्राप्त होती है उसका कभी भी अमंगल नहीं होता । सदा कल्याण होता है । वह अपना निश्चित अभिप्राय बता सकता है | साथ ही वह अन्योंको भी शुद्ध राह पर ले जा सकता है। कहा है कि- 1 "जीवन्ति शतशः प्राज्ञाः, प्रज्ञया वित्तसंक्षये । न हि प्रज्ञाक्षये कश्चिद्, वित्ते सत्यपि जीवति ॥४५॥ 1 - सैकडो बुद्धिमान घनके नाश होने पर भी बुद्धि द्वारा जीते हैं पर बुद्धिका नाश होने पर धन होते हुए भी कोई (वस्तुत' ) जीवित नहीं रह सकता । 46 अत धनसे बुद्धि उत्तम है इसलिये बुद्धिको प्राप्त करनेका प्रयत्न सतत करना चाहिये । यहां अव गृहस्थके सामान्य धर्मकी समाप्ति करते है ऐसा सामान्य धर्म पालन करनेवाला विशेष धर्मका अधिकारी होता है । क्रमाः यतिधर्म व मोक्ष पाता है । श्रीग्रन्थकार इस सामान्य धर्मका फल कहते हैं --- एवं स्वधर्मसंयुक्तो. सद्गार्हस्थ्यं करोति यः । लोकgasrat धीमान्, सुखमाप्नोत्यनिन्दित्तम् ||४|| मूलार्थ - जो पुरुष इस प्रकार स्वधर्मयुक्त श्रेष्ठ गृहस्थ धर्मका पालन करता है वह बुद्धिमान पुरुष इस लोकमें तथा परलोकमें अनिन्दित सुखको पाता है ।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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