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स्वर उनके कर्णसे टकराया। तद्दन अपरिचित और गूढार्थमय स्वरमें घोंटते हुए शब्दोमें उनको नूतनता भासने लगी, वे वहीं स्थिर हो गये और उन शब्दोंको समझनेका प्रयत्न करने लगे, लेकिन, निष्फल। दुबारा उन्होंने वे शब्द सुनेः
" चक्कीदुग हरिपणा, पणगं चक्कीण केसवो चक्की ।
केसव चक्की केसव, दुचक्की केसव चक्की य॥" [-क्रमश. एक पीछे एक २ चक्रवर्ती, ५ वासुदेव, ५ चक्री, १ केशव, १ चक्री, १ केशव, १ चक्री, १ केशव, २ चक्री, १ केशव और १ चक्री हुए हैं।
वे शब्दकोशोका स्मरण करते हुए भी जब उसका अर्थ कुछ भी न लगा सके तब उनको अपना आत्माभिमान खंडित होनेका भास हुआ। अभिमान खंडित होता है तब आदमीमे उस्केराट भा जाता है। हरिभद्र भट्ट क्रोधसे धुंआफूआ होकर वेले "किं चक्की चकचकायते 2 " [ यह चकली क्या चकचक करती है ? ] यह शब्द उपाश्रयमे गाजने लगे। उपर्युक्त गाथाको गोखनेवाली एक याकीनी नामकी विदुषी साध्वी थी। हरिभद्रके ऐसे मखौल उडाते शब्दोको वह सहन करनेवाली न थीं । दोनोका पांडित्य
आपसमें टकराने लगा। आर्याजीने शिष्टतासे प्रत्युत्तर दिया. वत्स ! यह गीले गोबरसे पोता हुआ नहीं है, जो चटसे मालूम पडे।'
हरिभद्र भट्ट साध्वीजीके इस अद्भुत प्रत्युत्तरसे चोक ऊठे। आज तक किसीने उनको ऐसी निडरतासे जवाब दिया न था।