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ऐसी विकट रनभूमिमें, दुर्जय, अरिनपै जय लहै । तुव चरनपंकजवन मनोहर, जो सदा सेवत रहै ॥४३॥
अन्वयार्थों-हे देव, (कुन्ताग्रभिन्नगजशोणितवारिवाहवेगावतारतरणातुरयोधभीमे ) वरछीकी नोकोंसे छिन्नभिन्न हुए हाथियोंके, रक्तरूपी जलप्रवाहके वेगमें पड़े हुए और उसे तैरनेके लिये आतुर हुए योद्धाओंसे जो भयानक हो रहा है, ऐसे (युद्धे ) युद्धमें (त्वत्पादपङ्कजवनायिणः) आपके चरणकमलरूपी वनका आश्रय लेनेवाले पुरुष (विजितदुर्जयजेयपक्षाः) नही जीता जा सके, ऐसे भी शत्रुपक्षको जीतते हुए (जयं) विजयको (लभन्ते ) प्राप्त करते है । ___ भावार्थः-आपके चरणकमलोंकी सेवा करनेवाले भक्तजन बड़े भारी युद्ध में भी शत्रुको जीतकर विजयी होते है ।। ४३ ॥ अम्भोनिधौ क्षुभितभीषणनकचक्र
पाठीनपीठभयदोल्बणवाडवाग्नौ । रगन्तरङ्गशिखरस्थितयानपात्रा
स्वासं विहाय भवतः स्मरणाद्रजन्ति॥४४॥ भीषण मगरमच्छादिकनसों, है रह्यो जो क्षुभित है। विकराल वड़वानल भयंकर, सदा जिहिमें जलत है ।। अस जलधिकी लहरीनमें, जिनकी जहाजै डगमगें। तुव नाम सुमरत हे जगतपति, ते तुरत तीरै लगें ॥४४॥ अन्वयार्थों-हे जगदाधार, (भवतः) आपके (सरणात् )