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( त्वयि ) तुममें ( संतोषं ) संतोषको ( एति ) पाता है और ( भवता वीक्षितेन ) आपके देखनेसे ( किं ) क्या ? ( येन ) जिससे कि, ( भुवि ) पृथिवीमें ( अन्यः कश्चित् ) कोई अन्य देव ( भवान्तरे अपि ) दूसरे जन्ममें भी ( मनः न हरति ) मन हरण नही कर सकते ।
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भावार्थ:- हरिहरादिक देवोंका देखना अच्छा है । क्यों कि जब हम उन्हें देखते है, और रागद्वेषादि दोषोंसे भरे हुए पाते है, तब आपमें हमको अतिशय संतोष होता है । क्यों कि आप परम वीतराग सर्व दोषोंसे रहित है । परन्तु आपके देखनेसे क्या ? कुछ नही । क्योंकि आपके देख लेनेसे फिर ससारके कोई भी देव मनको हरण नही कर सकते । सारांश - दूसरोंके देखनेसे तो आपमें संतोष होता है, यह लाभ है और आपके देखनेसे कोई भी देवकी ओर चित्त नही जाता, यह हानि है ( व्याजनिन्दा और व्याजस्तुति अलंकार ) ॥ २१ ॥ स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रा -
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता । सर्वा दिशो दधति भानि सहस्ररश्मि
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम्॥२२॥
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अहैं सैकड़ों सुभगा नारीं, जो बहुसुत उपजावैं । पै तुम सम सुपूतकी जननीं, यहां न और दिखावैं ॥ यद्यपि दिशिविदिशाएँ सिगरौं, धेरै नछत्र अनेका । पै प्रतापि रविको उपजावै, पूर्वदिशा ही एका ॥ २२ ॥