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छुपा लेने है, परन्तु आपके मुखको ढकनेवाला कोई नहीं है। चन्द्रमा पृथ्वीके कुछ भागको प्रकाशित करता है, परन्तु आपका मुख तीन जगतको प्रकाशित करता है । चन्द्रमा थोड़ी कान्तिवाला है, परन्तु आपके मुखकी अनन्त काति है ॥ १८ ॥
किं शर्वरीषु शशिनाहि विवखता वा __ युष्मन्मुखेन्दुदलितेषु तमःसु नाथ । निष्पन्नशालिवनशालिनि जीवलोके
कार्य कियजलधरैर्जलभारनद्रैः ॥ १९ ॥ हे नाथ, यदि तुव तमहरन वर, मुखमयंक अमंद है। तौ व्यर्थ ही सूरज दिवसमें, और निशिमें चंद है ॥ चहुँओर शोभित शालिके, बहु वननसों जो है रहो। जलभरे मेघनसों कहा, तिहि देशमें कारज कहो॥१९॥
अन्वयार्थी-(नाथ ) हे नाथ, (युष्मन्मुखेन्दुदलितेषु तमसु) आपके मुखरूपी चन्द्रमाकरके अधकारके नष्ट हो जानेपर ( शर्वरीषु ) रात्रियोंमें ( शशिना) चन्द्रमाकरके (वा) अथवा ( अह्नि) दिनमें (विवस्वता) सूर्यकरके (किं) क्या ? भला ! (जीवलोके निष्पन्नशालिवनशालिनि ) जीवलोकमें अर्थात् देशमें धान्यके खेतोंके पक चुकने पर (जलभारनौः ) पानीके भारसे झुके हुए (जलधरैः) बादलोकरके (कियत् कार्य) क्या प्रयोजन सिद्ध होता है ? अर्थात् कुछ नहीं ।