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और जो ( चलिताचलानां ) पर्वतोंके चलायमान करने वाले ( मरुतां ) पवनके ( जातु न गम्यः) कदाचित् भी गम्य नही है, ऐसे (जगत्प्रकाशः ) जगतके प्रकाशित करनेवाले (अपरः) अद्वितीय, विलक्षण ( दीपः ) दीपक ( असि ) हो । क्यों कि आप ( इदं ) इस ( कृत्स्नं ) समस्त ( जगत्रयम् ) सप्ततत्त्व नव पदार्थरूप तीन जगतको ( प्रकटीकरोषि ) प्रकट करते हैं ।
भावार्थः —– ससारमें जो दीपक दिखाई देते हैं, उनमें धुआं और वत्ती होती है, परन्तु आपमें वह ( द्वेषरूपी धुआं और कामकी दशअवस्थारूप वत्ती ) नही है । दीपकों में तेल होता है, आपमें तैल अर्थात् स्नेह (राग) नही है । दीपक जरासी हवाके झोकेसे बुझ जाता है, आप प्रलयकालकी हवासे भी चलित नही होते है । और दीपक एक घरको प्रकाशित करता है, आप तीन जगत्के सम्पूर्ण पदार्थों को प्रकाशित करते हैं । इस प्रकार आप जगत्के प्रकाश करनेवाले एक अपूर्व दीपक हो ॥ १६ ॥
नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति । नाम्भोधरोदरनिरुद्धमहाप्रभावः
सूर्यातिशायि महिमासि मुनीन्द्र लोके १७ छितितैं छुपतं नहिं छिनहु, छाया राहुकी नहिं परत है । तिहुं जगतको जुगपत सहज ही, जो प्रकाशित करत है ॥
१ पृथ्वीसे । २ अस्त होता है । ३ क्षणभरके लिये भी । ४ एक ही समयमे ।