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भक्तिके वशसे (विगतशक्तिः) शक्तिरहित ( अपि) भी (सः अहं ) वह वुद्धिहीन मै ( स्तवं कर्तु) आपका स्तवन करनेके लिये (प्रवृत्तः) प्रवृत्त हुआ हूं । सो ठीक ही है, क्योंकि (मृगः) हरिण (प्रीत्या) प्रीतिके वशसे(आत्मवीर्य ) अपने पराक्रमको ( अविचार्य) विना विचारे ही (निजशिशोः)अपने बच्चेकी ( परिपालनार्थम् ) रक्षाके अर्थ (किं) क्या ( मृगेन्द्र) सिंहको (न अभ्येति) नही प्राप्त होता है ? अर्थात् उसके सम्मुख लड़नेके लिये क्या नहीं दौड़ता है ?
भावार्थ:-जैसे हरिण अपने बच्चेको सिहके पंजेमें फंसा देखकर उसकी प्रीतिके वशसे यद्यपि सिंहको जीत नही सकता है, तो भी साम्हने लड़नेको दौड़ता है। उसी प्रकार मुझमें शक्ति नहीं है, तो भी भक्तिके वशसे आपका स्तोत्र करनेके लिये तत्पर होता हूं। अर्थात् इस स्तोत्रके करनेमें आपकी भक्ति ही कारण है, मेरी शक्ति वा प्रतिभा नही ॥५॥ अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम
त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् । यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति
तच्चारुचूतकलिकानिकरैकहेतुः ॥ ६॥ अल्पज्ञ अरु ज्ञानीजननके, हासको सुनिवास मैं । तुव भक्ति ही मुहि करत चंचल, इहि पुनीत-प्रयासमैं ॥ मधुमासमें जो मधुर गायन, करत कोइल प्रेमसों। ' सो नव रसालनकी ललित कलिकानिके वश नेमसों ॥६॥
१ पवित्र कार्यमे। ।