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धर्म है और इसी धर्मको प्राप्त करानेवाला जैनधर्म है। अथवा दूसरे शब्दोंमे यो कहिये कि, जैनध में है। सब जीबोका निजधर्म है। इसलिये प्रत्येक जीवको जैनधर्मके धारण करनेका अधिकार प्रत है । यही कारण है कि, हमारे पूज्य तीर्थकरों और ऋषियोने पशुपक्षियों तक को जैनध का उपदेश दिया है और उनको जेवधर धारण कराया है, जिनके लेकर्ड भै र इज़ रो हान्त प्रथमानुयोग के शास्त्रोके ( कथाग्रन्थोंके ) देखनेसे मालूम हो सकते हैं।
हमारे अन्तिम तीर्थंकर श्रीमहावीर स्वामी जब अपने इस जन्म से नौजन्म पहिले सिंहकी पर्यायमे थे, तब उन्हे किसी बनने एक महात्माके दर्शन करते ही जातिस्मग्ण हो गया था और उसी समय उक्त महात्मा के उपदेशसे उन्होने श्रावकके बारह व्रत धारण कर लिये थे । सहि होकर भी किसी जबको मारना और मांस खाना छोड दिया, सुखे तृण और पत्तोंपर जीवन व्यतीत करना अंगीकार किया और इस प्रकार जैनधर्मको पालते हुए सिंहपर्याय को छोडकर उन्होने पहिले स्वर्गमे जन्म लिया और वहांसे उन्नति करते करते अन्तमें जैनधर्म के प्रसादसे तीर्थकरपद प्राप्त क्रिया ।
श्रीपार्श्वनाथपुराणमे अरविन्द - मुनिके उपदेशने एक हाथी के जैनधर्म धारण करने और श्रावकके वम पालन करने के सम्बन्ध ने इस प्रकार लिखा हैः
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अब हाथ संजम साधै। त्रत जीवन भूज विराधै । समभाव हिमाउर थाने । अरिमित्र बराबर जाने || काया क ि इन्द्रो दंडे साहस धरि प्रोषध मंड । सूखे तृण पल्लव भच्छे | परमर्दित मारग गच्छे ॥