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जैनी बीसोके मदिरमे उसी प्रकार अष्ट द्रव्यादिसे पूजन करते हैं जिस प्रकार कि वे अपने मंदिरोमे करते है। जिनको ऐसा देखनेका अवसर न मिला हो वे दक्षिण देशकी ओर जाकर स्वय देख सकते हैं । उधर जानेपर उनको ऐसी जैनजातियां भी आम तौरपर पूजन करती हुई मिलंगी जिनमे पुनर्विवाहकी प्रथा भी जारी है।
इसके अतिरिक्त दस्सा जैनियोने अनेक प्रतिष्ठाएँ भी कराई है। एक प्रतिष्टा शोलापुरके सेठ रावजी नानचंदने कराई थी। पिछले साल भी दस्सा जैनियोंकी दो प्रतिष्टाएं हो चुकी है । प्रतिष्ठा करानेवाले भगवानकी प्रतिमाके साथ रथादिकमे बैठते है और स्वयं भगवानका अष्ट द्रव्यसे पूजन करते है । इसप्रकार प्रवृत्ति भी दस्सोंके पूजनाऽधिकारका मले प्रकार समर्थन करती है। इसलिये दस्सोंको बीसोंके समान ही पूजनका अधि. कार प्राप्त है। किसी किसीका कहना है कि अपध्वंसज अर्थात् व्यभिचारजातको ही दम्सा कहते है और व्यभिचारजात पूजनके अधिकारी नहीं होते, परन्तु ऐसा कहनेमे कोई प्रमाण नहीं है। जब प्रवृत्तिकी ओर देखते है तो वह भी इसके विरद्ध पाई जाती है-जो मनुष्य किसी वि धवा स्त्रीको प्रगट रूपसे अपने घरमे डाल लेता है अर्थात् उसके साथ कराओ (वरेजा) कर लेता है वह स्वय व्यभिचारजात (व्यभिचारसे पैदा हुआ मनुष्य) न होते हुए भी दम्सा समझा जाता है। यदि कोई बीसा किसी नीच जाति (शूद्रादिक) की कन्यासे विवाह कर लेता है तो वह भी आजकल जानिसे च्युत किया जाकर दस्सा या गाटा बनादिया जाता है और उसकी सतान भी दस्सोमे ही परिगणित होती है । इसीप्रकार यदि विधवाके साथ कराओ कर लेनेसे कोई पुत्र पैदा हो और उसका विवाह विधवासे न होकर किसी कन्यासे हो तो विधवा-पुत्रकी संतान व्यभिचारजात न होते हुए भी दस्सा ही कहलाती है । बहुधा वह संतान जो भारके जीवित रहते हुए जारसे उत्पन्न होती है, वह व्यभिचारजात होते हुए भी दस्सोंमे शामिल नहीं की जाती । कहीं कहींपर दस्सेकी कन्यासे विवाह कर लेनेवाले बीसेको भी जातिसे खारिज (च्युत) करके दस्सोंमें शामिल कर देते हैं, परन्तु बम्बई और दक्षिण प्रान्तादि बहुतसे स्थानोमें यह प्रथा नहीं है । वहांपर दस्सों और बीसोमें परस्पर