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छोड़कर अमरूपसे नीचे दर्जेका ही उपदेश देनेवालेको जैनशासनमे दुर्बुद्ध और दण्डनीय कहा है, जैसा कि स्वामी अमृतचंद्रआचार्यके निम्न लिखित वाक्योसे ध्वनित है - "यो मुनिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः । तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम् ॥ १८ ॥ अक्रमकथनेन यतः प्रोत्सहमानोऽतिदूरमपि शिष्यः । अपदेऽपि संप्रतप्तः प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना ॥१९॥"
-पुरुपायमिद्धयुपाय । यह शासन दड भी सक्षेप और सामान्य लिखनेवालोंको उत्कृष्टकी अपेक्षासे कथन करनेमें कुछ कम प्रेरक नहीं है। इन्हीं समस्त कारणोसे आचरण सम्बधी कथनशैलीका प्राय उत्कृष्टाऽपेक्षासे होना पाया जाता है। किसी किसी प्रथमे तो यह उत्कृष्टता यहातक बढ़ी हुई है कि साधारण पूजकका खरूप वर्णन करना तो दूर रहा, उचे दर्जेके नित्यपूजकका भी स्वरूप वर्णन नही किया है । बल्कि पूजकाचार्यका ही स्वरूप लिखा है । जैसा कि बसुनन्दिश्रावकाचारमे, नित्यपूजकका स्वरूप न लिखकर, पूजकाचार्य (प्रतिष्ठाचार्य) का ही स्वरूप लिखा है । इसीप्रकार एकसंधिभट्टारककृत जिनसंहितामे पूजकाचार्यका ही स्वरूप वर्णन किया है। परन्तु इस सहितामे इतनी विशिष्टता और है कि, पूजक शब्दकर ही पूजकाचार्यका कथन किया है । यद्यपि 'पूजक' शब्दकर पूजक (नित्यपूजक) और पूजकाचार्य (प्रतिष्ठादिविधान करनेवाला पूजक) दानोका ग्रहण होता है-जैसा कि ऊपर उल्लेख किय हुए पूजासार अथके, "पूजकः पूजकाचार्य. इति द्वेधा स पूजक.," इस वाक्यसे प्रगट है-तथापि साधारण ज्ञानवाले मनुष्योको इससे भ्रम होना सभव है। अत. यहापर यह बतला देना जरूरी है कि उक्त जिनसंहितामें जो पूजकका स्वरूप वर्णन किया है वह वास्तवमे पूजकाचार्यका ही स्वरूप है। वह स्वरूप इस सहिताके तीसरे परिच्छेदमें इसप्रकार लिखा है -
“अथ वक्ष्यामि भूपाल ! शृणु पूजकलक्षणम् । लक्षितं भगवहिव्यवचस्खखिलगोचरे ॥१॥