________________
रण सम्बधी कथनशैलीका लक्ष्य प्राय उत्कृष्ट ही रक्खा गया मालूम होता है। प्रत्येक प्रथमे उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्यरूप समस्त भेदोंका वर्णन नहीं किया गया है। किसी किसी प्रथमे ही यह विशेष मिलता है। अन्यथा जहा तहा सामान्यरूपसे उत्कृष्टका ही कथन पाया जाता है । इसके कारणोपर जहातक विचार किया जाता है तो यही मालूम होता है कि, प्रथम तो उत्कृष्ट आचरणकी प्रधानता है । दूसरे समस्त भेद-प्रभेदोका वर्णन करनेसे प्रथका विस्तार बहुत ज्यादह बढता है और इस ग्रथ-विम्तारका भय हमेशा अथकर्ताओको रहता है । क्योकि विस्तृत प्रथके सम्बध पाठकोमे एक प्रकारकी अरुचिका प्रादुर्भाव हो जाता है और सर्व साधारणकी प्रवृत्ति उसके पठन-पाठनमे नहीं होती। तथा ऐसे प्रथका रचना भी कोई आसान काम नहीं है.-समस्तविषयोका एक प्रथमे समावेश करना बढाही दु साध्य कार्य है । इसके लिये अधिक काल, अधिक अनुभव और अधिक परिश्रमकी सविशेपरूपसे आवश्यक्ता है। तीसरे ग्रथोकी रचना प्राय ग्रथकारोकी रुचिपर ही निर्भर होती है-कोई ग्रथकार मक्षेपप्रिय होते है
और कोई विस्तारप्रिय-उनकी इच्छा है कि वे चाहे, अपने प्रथम, जिस विषयको मुख्य रक्खे और चाहे, जिस विषयको गोण । जिस विषयको अथकार अपने प्रथम मुख्य रखता है उसका प्राय विस्तारके साथ वर्णन करता है। और जिस विषयको गौण रखता है उसका सामान्यरूपसे उत्कृष्टकी अपेक्षा कथन कर देता है । यही कारण है कि कोई विषय एक प्रथमे विस्तारके साथ मिलता है और कोई दूसरे प्रथम । बल्कि एक विषयकी भी कोई बात किसी प्रथमे मिलनी है और कोई किमी प्रथमे । दृष्टान्तके तौरपर पूजनके विषयहीको लीजिये-स्वामी समन्तभद्राचार्यने, रत्नकरंडश्रावकाचारमे, देवाधिदेव चरणे "तथा अर्हचरणसपर्या " इन, पूजनके प्रेरक और पूजन-फल प्रतिपादक, दो श्लोकोके सिवाय इस विषयका कुछ भी वर्णन नहीं किया । श्रीपद्मनन्दिआचार्यने, पद्मनंदिपंचविशतिकामे, गृहस्थियोके लिये पूजनकी ग्वास जरूरत वर्णन की है और उसपर जोर दिया है । परन्तु पूजन और पूजकके भेदोका कुछ वर्णन नहीं किया । बसुनन्दिआचार्यने, बसुनन्दिश्रावकाचारमे, भगवजिनसेनाचार्यने आदिपुराणमें इसका कुछ कुछ विशेष वर्णन