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वर्णन किया है। प्रथमानुयोगके ग्रथोसे प्रगट है कि, स्वर्गादिकके प्राय सभी देव, देवांगना सहित, समवसरणादिमे जाकर साक्षात् श्रीजिनेंद्रदेवका पूजन करते है, नंदीश्वर द्वीपादिकमे जाकर जिनबिम्बोका अर्चन करते है और अपने विमानोके चैत्यालयोमे नित्यपूजन करते हैं। जगह जगह शास्त्रोमे नियमपूर्वक उनके पूजनका विधान पाया जाता है। परन्तु वे मब अव्रती ही होते है -उनके किसी प्रकारका कोई व्रत नहीं होता। देवोको छोडकर अव्रती मनुष्योक पूजनका भी कथन शास्त्रोमे स्थान स्थानपर पाया जाता है । समवसरणमे अव्रती मनुष्य भी जाते है और जिनवाणीको सुनकर उनमसे बहुतसे व्रत ग्रहण करते है, जैसा कि ऊपर उल्लेख किये हुए हरिवंशपुराणके कथनस प्रगट है। महाराजा श्रेणिक भी अव्रती ही पे, जो निरन्तर श्रीवीरजिनेद्र के समवसरणमे जाकर भगवानका साक्षात् पूजन किया करते थे । और जिन्होने अपनी राजधानीम, स्थान स्थानपर अनेक जिनमदिर बनवाये थे, जिसका कथन हरिवंशपुगणादिकमे मौजूद है । सागारधर्मामृतमे पूजनके फलका वर्णन करते हुए साफ लिखा है कि"दृक्पूतमपि यष्टारमहतोऽभ्युदयश्रियः।
श्रयन्त्यहपूर्विकया कि पुनर्वतभूषितम् ॥ ३२ ॥" अर्थात्-अहंतका पूजन करनेवाले अविरतसम्यग्दृष्टिको भी, पूजा, धन, आज्ञा, ऐश्वर्य, बल और परिजनगढिक सम्पदाएँ-मै पहले, ऐसी शीघ्रता करती हुईं प्राप्त होती है। और जो व्रतसे भूपित है उसका कहना ही क्या? उसको वे सम्पदाएँ और भी विशेषताके साथ प्राप्त होती है।। ___ इससे यही सिद्ध हुआ कि-धर्मसग्रहश्रावकाचार और पूजासारमे वर्णित पूजकके उपर्युक्त म्वरूपको पूजकका लक्षण माननेसे, जो वतीश्रावक दूसरी प्रतिमाके धारक ही पूजनके अधिकारी ठहरते थे, उसका आगमसे विरोध आता है । इसलिये वह स्वरूप पूजक मात्रका स्वरूप नहीं है किन्तु ऊचे दर्जे के नित्य पूजकका ही स्वरूप है । और इसलिये शूद्र भी ऊचे दर्जेका नित्यपूजक हो सकता है।
यहापर इतना और भी प्रगट कर देना जरूरी है कि, जैन शास्त्रोंमे आच.