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प्रस्तावना।
श्रीपद्मनन्दि आचायने 'अनित्यपचाशत् ' को रचकर ससारी जनोंका बडा ही उपकार किया है। इष्टवियोगादिके कारण कैसा ही शोकसतप्त हृदय क्यो न हो इसको एकबार पट लेनेसे परमशान्तताको प्राप्त हो जाता है । इसके पाटसे उदासीनता और खेद दूर होकर चित्तमें प्रसन्नता और सरसता आ जाती है। ससारदेहभोगोंका यथार्थ स्वरूप मालम करके हृदयमें विवेकबुद्धि जागृत हो उठती है । ससारी जनोंको उनकी भूल मालूम पड जाती है और उनमे धैर्य और साहसकी. मात्रा बढ़ जाती है। जो लोग शोक सतापमे आत्मसमर्पणकर अपने धर्मार्थादिक पुरुषाथोको खो बैठते हे-अकर्मण्य बन जाते है-महीनो वर्षोंतक रोते पीटते हे और इसप्रकार अपने शारीरिक और मानसिक बलको क्षति (हानि) पहुँचाकर अ. पना जीवन, एक प्रकारसे, दुखमय बना लेते है, उनके लिये ऐसे ग्रथोंका सत्सग बडा ही उपयोगी है-उनकी आत्माओंको उन्नत करने और उनका दुय दूर करनेमे बडा ही सहायक है। ऐसे ग्रन्यरत्नोका सर्वसाधारणमें प्रचार होनेकी बहुत बटी आवश्यकता है। यह अन्य जैन अजैन सबके लिये समानरूपसे हितकारी ह।
इस ग्रन्थकी भाषा सस्कृत होनेके कारण हमारा हिन्दी समाज अभीतक इसके. लाभासे प्राय वचित हो रहा है। यह देख, मेरे अन्त करणमे इस परमोपकारी । प्रथका हिन्दी पद्यानुवाद करनेका विचार उत्पन्न हुआ। उसीके फलस्वरूप यह पद्यानुवाद पाठकोके सन्मुख उपस्थित है। इस अनुवादमे मैन, इस बातका ध्यान रखते हुए कि मूलकी कोई बात छूट न जावे, उस भावको लानेकी यथाशक्ति चेष्टा की है जो आचार्य महोदयने मूलमें रक्खा है और साथ ही यह भी खयाल रक्खा है कि अनुवादकी भाषा कठिन न होने पावे । मुझे, इसमें, कहाँतक सफलता प्राप्त हुई है, इसका विचार मै अपने विचारशील पाठकोपर ही छोडता हूँ। आशा है कि हिन्दीभाषाभाषी दूसरा श्रेष्ट अनुवाद न होनेतक इसअनुवादको आदरकी , दृष्टिसे देखेंगे और इससे कुछ लाभ अवश्य उठावेंगे। __ अन्तमें मैं श्रीमान् सेठ हीराचदजी नेमिचन्दजी आनरेरी मजिष्ट्रेट सोलापुरका हृदयसे आभार मानता हूँ जिनकी कि प्रथम प्रकाशित की हुई इस 'अनित्य' पचाशत्, और उसकी मस्कृत टीकाको देखकर मुझे इस अनुवादके करनेकी प्रेरणा हुई। देवबन्द
जुगलकिशोर मुख्तार। जि. सहारणपुर।