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जारौं काल समीप मनुजके, शिथिल यत्न सब हो । जल छिड़कत दृढ चार्मिक बन्धन, जिम ढीले पड़ जावै॥४८॥ कालादिक लहि तेजयुक्त जो, कर्म सिंह बलधारी । ताकरि पकड़ो शरणरहित भव, वनमें जन अविचारी ॥ 'मेरी भार्या मेरा धन-गृह, मेरा सुत परिवारा।' अजेसुत सम इम 'मे मे ' करता, मरण लहै बेचारा ॥४९॥ यम कर अतिशय पीड़ित ऐसी, आयु आपनी जानो। दिन है गुरुतर खंड तासुके, यह निश्चय उर आनो ॥ तिनको नित निज सन्मुख खिरते, लखिकर भी भविप्राणी। अपनेको थिर मान रहो जो, सो क्यो नहिं अज्ञानी ॥५०॥ इंद्र चंद्र आदिक भी निश्चय, कालगाल जब जावें। निर्बल जन अल्पायु कटिसम-की क्या बात सुनावै ॥ स्वजन मरणपर तातै भविजन, मोह वृथा मत कीजे । काल न तनुमें खेले जाकर, शीघ्र आत्म लख लीजे ॥५१॥ रस्थे निजे । यत्नायान्ति यतोगिन शिथिलता सर्वे मृते सन्निधौ, बन्धाश्चर्मविनिर्मिता• परिलसद्वर्षाम्बुसिक्ता इव ॥ ४८ ॥ स्वकर्मव्याघेण स्फुरितनिजकालादिमहसा, समाघ्रात साक्षाच्छरणरहिते ससृति वने । प्रिया मे पुत्रा मे द्रविणमपि मे मे गृहमिदम, वदन्नेव मे मे पशुरिव जनो याति मरणम् ॥ ४९ ॥ दिनानि खडानि गुरूणि मृत्युना, विहन्यमानस्य निजायुषो भृशम् । पतन्ति पश्यन्नपि नित्यमग्रतः, स्थिरत्वमात्मन्यभिमन्यते जड ॥५०॥ कालेन प्रलय व्रजन्ति नियत तेऽपीन्द्रचन्द्रादय , का वार्त्तान्यजनस्य कीटसदृशोऽशक्तरदीर्घायुष. । तस्मान्मृत्युमुपागते प्रियतमे मोह वृथा मा कृथाः, कालः क्रीडति नात्र येन सहसा तत्किचिदन्विष्यताम् ॥ ५१ ॥ सयोगो यदि विप्रयोगविधिना न्मे
१ चमके-चमडेके । २ बकरीके बच्चे के समान ।