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मोही होकर शोक करै जो, इष्ट मरणपर कोई। लाभ न ताको रंच मात्र पर, हानी निश्चय होई ॥ दुःख बदै धर्मादि नशैं अरु, मंति-विभ्रम हो जाई । पाप रोग मृत्यू पुन दुर्गति, तातै जगत भ्रमाई ॥४५॥ यह जग है सब दुःखनिधाना, जब ह्याँ रहना ठाना । दुःख माहिं किस हेतु सुजन तब, चित अपना अकुलाना॥ जो अपना घर बांधि रहै है, मनुष चतुष्पथमाहीं। लंघन आदि उपद्रवसे सो, क्यों शंकै मनमाहीं ?* ॥४६॥ क्या उसको वातूल कहै वा, भूताविष्ट बखानैं ? भ्रान्तचित्त क्या उसको जानैं, वा उन्मत्त प्रमानें ? जीवनादिको विद्युत सम चल, जो देखै अरु जाने । कर्णनसे अपने पुन सुन है; तौ हु न निज हित ठानै ॥४७॥ 'हा! मैं याको औषधि नहिं दी, मांत्रिकको न दिखाया'।' या विध शोक न करना बुधजन, स्वजन तजै जब काया ॥ आपन्मयससारे क्रियते विदुषा किमापदि विषादः । कस्त्रस्यति लघनतः प्रविधाय चतुष्पथे सदनम् ॥४६॥ वातूल एष किमु कि ग्रहसगृहीतो, भ्रान्तोऽथवा किमु जन किमथ प्रमत्त । जानाति पश्यति शणोति च जीवितादि, विद्युञ्चल तदपि नो कुरुते स्वकार्यम् ॥४७॥ दत्त नौषधमस्य नैव कथित कस्याप्यय मत्रिणो, नो कुर्यान्छुचमेवमुन्नतमतिर्लोकान्त
१ बुद्धिका बिगड जाना-अकलमें फतूर आ जाना । २ चौराहा। ३ उल्लघनलापकर जाना। ४ पागल। ५ जिसपर भूतका असर हो रहा हो। ६ मत्रवादीस्याना। * मूलका सक्षिप्तानुवाद इस प्रकार हो सकता है
दो• "विपतमई जगमें सुजन, क्या विषाद दुखमाहि।
लॅपनेसे तब को डरै, करि घर चतुपथ माहिं ॥