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इम इच्छा भय माहिं लीन चित, व्यर्थ मोहवश पानी। दुख-लहरनयुत भवसमुद्रमें, प कुमात अगवानी ॥३६॥ इंद्रिय सुख जलमें क्रीड़त नित, जगतसरोवर माहीं। यम धीवर कर बूढ़ापनको, जाल जहाँ पसराहीं । तामें फँसकर लोकरूप यह, दीन मीन समुदाई। निकट प्राप्त भी घोर आपदा, ओंको देखत नाहीं ॥३७॥ सुन गत जीवनको यमगोचर, ? देख बहुतको जाते। मोह है (१) यह माने तो भी नर, आतम थिरता जातै ॥ वृद्धावस्था प्राप्त भये भी, जो न धर्म चित लावै । अधिक अधिक वह पुत्रादिक बंधनकर आत्म बँधावै ॥३८॥ निबल संधि बन्धनयुत तनु अघ, कर्म शिल्पि निर्मायो। मलदोषादि भरो पुन नश्वर, विनशत वार न जाको । विधिना दत्त पर प्राप्यते, नून मृत्युमुपाश्रयन्ति मनुजास्तत्राप्यतो विभ्यति । इत्थ कामभयप्रसक्तहृदया मोहान्मुधैव ध्रुव, दुःखोर्मिप्रचुरे पतन्ति कुधिय. ससारघोरार्णवे ॥३६॥ स्वसुखपयसि दिव्यन्मृत्युकैवर्त्तहस्तः प्रसृतधनजरोरुप्रोल्लसज्जालमध्ये । निकटमपि न पश्यत्यापदा चक्रमुग्र, भवसरसि वराको लोकमानौघ एष. ॥ ३७॥ शृण्वन्नन्तकगोचर गतवत. पश्यन् बहून् गच्छतो, मोहादेव जनस्तथापि मनुते स्थैर्य पर ह्यात्मन । सप्राप्तेऽपि च वार्द्धके स्पृहयति प्रायो न धर्माय य, तद्बध्नात्यधिकाधिक स्वमसकृत्पुत्रादिभिर्बन्धनै ॥ ३८॥ दुश्चेष्टाकृतकर्मशिल्पिरचित दु.सन्धि
१ पापकर्मरूपी शिल्पकार (कारागीर) का बनाया हुआ । २ नाश होने
वाला।