________________ ( 31 ) वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि / तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही। __ अर्थ जैसे कोई मनुष्य पुराने कपड़े उतार डालता है और नए पहन लेता है, इसी प्रकार यह देही या आत्मा पुराना शरीर छोड़कर नया शरीर धारण कर लेता है। प्रकार-इसलिए जीव दो प्रकारके है (1) कर्मरहित जीव, जिसको हम सिद्ध, ईश्वर, परमात्मा, ब्रह्म, बुद्ध, जिन, खुदा, 'गोड' आदि नामसे पुकार सकते है (2) कर्मसहित या अमुक्त जीव, यह जीव, अपने 2 कर्मों के अनुसार चौरासी लाख योनियों में भ्रमता फिरता है और इन योनियोंके अनुसार कभी मनुष्य, कभी तिर्यञ्च, कभी वनस्पतिकाय, पृथ्वीकाय, आपः काय तेजस्काय, वायुस्काय, कभी खर्गीय और कभी नारकी कहलाता है। अमुक्त जीव दो प्रकारके है,-एक स्थावर दूसरे त्रस या जंगम / स्थावर जीव वे है, जिनके केवल एक स्पर्श इन्द्रिय हो, जैसे वृक्ष, लता, अग्नि, जल, वायु पृथ्वी, पहाड़ ये सब जीव हैं, इनमें चेतनशक्ति है और अनेक कारणों से घटते बढते या नष्ट होते रहते है। त्रस जीव चार प्रकारके है (1) द्वीन्द्रिय, जिनके दो इन्द्रियां स्पर्शन ( त्वचा ) और रसना ( जिव्हा ) है, यथा-लट, गिंडोला आदि (2) त्रीन्द्रिय, तीन इन्द्रियोंवाले ऊपर की दो और तीसरी नासिका या प्राण इन्द्रिय, यथा-चीवटी, खटमल आदि (3) चतुरिन्द्रिय, चार इन्द्रियोंवाले, ऊपर की तीन और चौथी नेत्र यथा अमर, मक्खी, ततैया आदि (1) पञ्चेन्द्रिय, पांच