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ताते जन्मत मरत स्वजनके, हर्ष न शोक करीजे। या विध जीवनकी अस्थिरता, जान सुबुंधजन लीजे ॥१९॥ भ्रमते काल अनंत जगतमें, जीव न नरपद पावै । दुष्कुलमें यदि पावै भी तो, अंघसे पुन नश जावै॥ सत्कुलमें आ गर्भहिं विनशै, लेते जनम मरै वा। बचपनमें नश है तब उप पा, क्यौ तहँ यत्न करै ना ॥२०॥ . थिर सतरूप सदा जग भी पुन, उपजै विनशै ऐसे । पर्यायान्तर कर क्षणक्षणमें, जलेदपटल हो जैसे ॥ ताते जगमें जन्मत मरते, इष्ट जनोंके प्यारो। हर्ष किये क्या? अहो शोककर, क्या है साध्य? विचारो॥२२॥ सागर पर्वत देश नदिनको, मनुज लॉकर जावै। मरण घड़ीको पलक मात्र भी, देव न लॅघने पावै ।। मधुलिह पुष्पाञ्च पुष्प यथा, जीवायान्ति भवाद्भवान्तरमिहाश्रान्त तथा ससृतौ । तजातेऽथ मृतेऽथवा नहि मुद शोक न कस्मिन्नपि, प्राय. प्रारभतेऽधिगम्य मतिमानस्थैर्यमित्यङ्गिनाम् ॥ १९॥ भ्राम्यत् कालमनन्तमत्र जनने प्राप्नोति जीवो न वा, मानुष्य यदि दुष्कुले तदघत प्राप्त पुनर्नश्यति । सज्जातावथ तत्र याति विलय गर्भेऽपि जन्मन्यपि, द्राग्वाल्येऽपि ततोऽपि नो वृष इति प्राप्ते प्रयत्नो वर. ॥२०॥ स्थिर सदपि सर्वदा भृशमुदेत्यवस्थान्तरैः, प्रतिक्षणमिद जगज्जलदकूटवनश्यति । तदत्र भवमाश्रिते मृतिमुपागते वा जने, प्रियेऽपि किमहो मुदा किमु शुचा प्रबुद्धात्मनः ॥ २१ ॥ लभ्यते जलराशय. शिख
१ उत्तम बुद्धिका धारक। २ पाप। ३ धर्मको पाकर। ४ तिस धर्ममें। ५ एक अवस्थासे दूसरी अवस्था धारण कर । ६ मेघपटल। ७ इष्ट प्रयोजन जो सिद्ध किया जाय।