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(२२) अर्थ,-लोकनिका ऐसा कहना है जो जिस वस्तुका अतिपरिचय अतिसेवन हो जाय तिसमैं अवज्ञा अनादर होजाय है रुचि घटि जाय है अर नवीनका संगममैं प्रीति होय है यह बात प्रसिद्ध है अर हे जीव तू इस शरीरको चिरकालसे सेवन किया अब याका नाश होतें अर नवीन शरीरका लाभ होतें भय कैसे करो हो भय करना उचित नहीं। भावार्थ,--जिस शरीरकू बहुत काल भोगि जीर्ण कर दीना साररहित बलरहित हो गया अर नवीन उज्वल देह धारण करनेका अवसर आया अब भय कैसे करो हो यो जीर्ण देह तो विनसैहीगो इसमैं ममता धारि मरण बिगाडि दुर्गतिका कारण कर्मबंध मत करो ॥ १७ ॥
शार्दूलविक्रीडितम् । स्वर्गादेत्य पवित्रनिर्मलकुले संस्मर्यमाणा जनैर्दत्त्वा भक्तिविधायिनां बहुविधं वाञ्छानुरूपं धनं । भुक्त्वाभोगमहर्निशं परकृतं स्थित्वा क्षणं मण्डले पात्रावेशविसर्जनामिव मृति सन्तो लभन्ते स्वतः॥१८॥