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(१९) संतापको प्राप्त होय है क्योंकि अज्ञानी तो बहिरात्मा है देहादिक वाद्य वस्तुकू ही आत्मा मानै है अर ज्ञानी जो सम्यग्दृष्टी है सो ऐसा मानै है जो आयु कर्मादिकका निमित्तते देहका धारण है सो अपनी स्थिति पूर्ण भये अवश्य विनशैगा मैं आत्मा अविनाशी ज्ञानखभाव हूं जीर्ण देह छांडि नवीनमैं प्रवेश करते मेरा कुछ विनाश नहीं है ॥ १३॥ यत्फलं प्राप्यते सद्भितायासविडंबनात् । तत्फलंसुखसाध्यं स्यान्मृत्युकालेसमाधिना। __ अर्थ, यहां सत्पुरुष हैं ते व्रतनिका बड़ा खेदकरि जिस फलकू प्राप्त होइये है सो फल मृत्युका अवसरमैं थोरे काल शुभध्यानरूप समाधिमरणकरि सुख साधने योग्य होय है । भावार्थ,-जो खाँमैं इंद्रादिक पद वा परंपराय निर्वाणपद पंच महाव्रतादिक वा घोर तपश्चरणादिककरि सिद्ध करिये है सो पद मृत्युका अवसरमैं जो देह कुटंबादिसूं ममता छांडि भयरहित हुवा वीतरागतासहित च्यारि आराधनाका शरण ग्रहण करि कायरता छांडि अपना ज्ञायक खभावकू अवलं. बनकरि मरण करै तो सहज सिद्ध होय तथा स्वर्गलोकमैं महर्द्धिक देव होय तहातै आय बड़ा कुलमै उपजि उत्तम संहननादि सामग्री पाय दीक्षा धारण करि अपनेरतत्रयकी पूर्णताकूप्रास होय निर्वाण जाय है ॥१४॥