________________
(१२) एक क्षेत्रमैं तिष्ठनेरूप अबगाह है तथापि मेरा रूप ज्ञाता है अर शरीर जड़ है मैं अमूर्तीक, देह मूर्तीक, मैं अखंड एक हूं, शरीर अनेक परमाणुनिका पिंड है, मैं अविनाशी हूं, देह विनाशीक है अब इस देहमैं जो रोग तथा तृषादि उपजै तिसका ज्ञाता ही रहना मेरा तो ज्ञायक स्वभाव है परमैं ममत्व करना सो ही अज्ञान है मिथ्यात्व है अर जैसैं एक मकानकू छोड़ि अन्य मकानमैं प्रवेश करे तैसें मेरे शुभ अशुभ भावनिकरि उपजाया कर्मकरि रच्या अन्य देहमैं मेरा जाना है इसमें मेरा स्वरूपका नाश नहीं अब निश्चयकरि विचारसे मरणका भय कौनकै होय ॥९॥ संसारासक्तचित्तानां मृत्यु त्यै भवेन्नणां । मोदायते पुनः सोऽपि ज्ञानवैराग्यवासिनां॥ __ अर्थ,-संसारमैं जिनका चित्त आसक्त है अपना रूपकू जे जाने नहीं तिनके मृत्यु होना भयके अर्थि है अर जे निजस्वरूपके ज्ञाता हैं अर संसारतें विरागी हैं तिनकै तो मृत्यु है सो हर्षके अर्थि ही है। भावार्थ,मिथ्यादर्शनके उदयतें जे आत्मज्ञानकरिरहित देहहीकू आपा माननेवाले अर खावना पीवना कामभोगादिक इंद्रियनिके विषयनिकू ही सुख माननेवाले बहिरात्मा हैं तिनकै तो अपना मरण होना बड़ा भयके अर्थि है