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(१०) तो फेरि संसारपरिश्रमणका अभावकरि अविनाशीसुखत प्राप्त हो जावो तातै ज्ञानसहित पंडितमरण करना ही उचित है ॥७॥ जीर्ण देहादिकं सर्व नूतनं जायते यतः। समृत्युःकिंनमोदायसतांसातोत्थितियथा॥ ___ अर्थ,-जिस मृत्युतै जीर्ण देहादिक सर्व छूटि नवीन हो जाय सो मृत्यु सत्पुरुषनिकै साताका उदयकी ज्यों हर्षके अर्थि नहीं होय कहा? ज्ञानीनिकै तो मृत्यु हर्षक अर्थि ही है । भावार्थ, यो मनुष्यनिको शरीर नित्य ही समय समय जीर्ण होय है देवनिका देह ज्यों जरारहित नहीं है दिन दिन बल घटै है कांति अर रूप मलीन होय है स्पर्श कठोर होय है समस्त नसानिके हाइनिके बंधान शिथिल होय हैं चाम ढीली होय मांसादिकनिकू छांडि ज्वरलीरूप होय है नेत्रनिकी उज्वलता बिगड़े है कर्णनिमैं श्रवण करनेकी शक्ति घटै है हस्तपादादिकनिमैं असमर्थता दिन दिन बधै है गमनशक्ति मंद होय है चालते बैठते उठते स्वास बधै है कफकी अधिकता होय है रोग अनेक बधैं हैं ऐसी जीणे देहका दुःख कहां तक भोगता अर ऐसे देहका घींसणा कहां तक होता मरण नाम दातार विना ऐसे निधदेहळू छुड़ाय नवीन देहमैं वास कौन करावै जीर्ण