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प्राकृतव्याकरणम्
रुषादीनां दीर्घः ॥ ८ । ४ । २३६ ॥
रुप इत्येवंप्रकाराणां धातूनां स्वरस्य दीर्घो भवति ॥ रूस | तूसइ । सूसइ । दूसइ । पूसइ । सीसइ । इत्यादि ।। २३६॥ युवर्णस्य गुणः || ८ | ४ । २३७ ॥
धातोरिवर्णस्योवर्णस्य च त्यिपि गुणो भवति ॥ जेऊण । नेऊण । नेइ । नेन्ति । उड्डेइ । उड्डेति । मोक्षूण । सोऊण || क्वचिन्न भवति ॥ ओ । उड्डीणो ॥ २३७ ॥
[ सू. ८-४-२३६
स्वराणां स्वराः || ८ ४ । २३८ ॥
धातुषु स्वराणां स्थाने स्वरा बहुलं भवन्ति || हवइ । हिवइ । चिणइ | चुणइ || सद्दहणं । सद्दहाणं || धावइ । धुवइ || स्वइ | रोवइ || क्वचि - नित्यम् । देइ । लेइ । विहे । नासइ || आ | बेमि ॥ २३८ ॥ व्यञ्जनाददन्ते || ८ | ४ । २३९ ॥
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व्यञ्जनान्ताद्धातोरन्ते अकारो भवति ॥ भमइ । हसइ । कुणइ | चुम्बई | भइ । उवसमइ । पावइ । सिञ्चइ । रुन्धइ । मुसइ | हरइ | करइ || शबादीनां च प्रायः प्रयोगो नास्ति ॥ २३९ ॥
स्वरादनतो वा ।। ८ । ४ । २४० ॥
अकारान्तवर्जितास्वरान्ताद्धातोरन्ते अकारागमो वा
भवति ॥ पाइ पाअइ । धाइ धाअइ । जाइ जाअइ | झाइ झाअइ । जम्भाइ जम्भाअइ | उव्वाइ उव्वाअइ । मिलाइ मिलाइ । विकेइ विक्वेअर । होऊण होइ - ऊण अनत इति किम् | चिइच्छइ । दुगुच्छइ ॥ २४० ॥ चि-जि-श्रु-हु-स्तु-लू-पू-धूगां णो -हस्वश्च ॥ ८ । ४ । २४१ ॥
च्यादीनां धातूनामन्ते णकारागमो भवति एषां स्वरस्य च स्व भवति ॥ चि । चिणइ || जि | जिणइ || श्रु । सुइ || हु । हुणइ ॥ स्तु । थुणइ || लू । लुणइ ॥ पू | पुणइ ॥ धूग् । धुणइ || बहुला - कारात्क्वचिद्विकल्पः । उच्चिणइ | उच्चेइ ॥ जेऊण । जिणिऊण || जयइ जिणइ || सोऊण । सुणिऊण ॥ २४९ ॥