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________________ [314] 'ऋतुसंहार' में वर्णित ग्रीष्म ऋतु : ग्रीष्म ऋतु में सूर्यदेव प्रचण्ड रूप धारण करते हैं। चन्द्रमा प्रिय लगता है। निरन्तर स्नानादि क्रिया से जलाशयों का जल भण्डार सूख जाता है। दिवस का अवसान तथा सांयकाल सुहावना लगता है (1/1), उज्जवल शीतल चाँदनी रात, फव्वारेदार सुरम्य शीतभवन, चन्द्रकान्तमणि और सरस चन्दन ग्रीष्म ऋतु में लोगों द्वारा सेवन करने योग्य होते हैं (1/2), प्रसुप्तकामभाव चन्दन के जल से संसिक्त पंखे से उत्पन्न हवाओं से मानो जगाया जाता है (1/8), असहनीय वायु के द्वारा उड़ाई गई धूल वाली पृथ्वी प्रचण्ड सूर्य के आतप से सन्तापित होती है (1/10), भीषण ताप से सन्तप्त और अत्यधिक प्यास से शुष्क तालु वाले हरिण पीसे हुए अञ्जन के समान नीलवर्ण के आकाश को देखकर दूसरे वन में जल है' ऐसा समझकर दौड़ पड़ते हैं (1/11), सूर्य की किरणों से अत्यधिक सन्तापित बार-बार फुफकारता हुआ सर्प मोरपंखों की छाया के नीचे निवास करता है (1/13), धधकती आग की ज्वाला के समान अत्यन्त तीक्ष्ण सूर्य की किरणों से क्लान्त शरीर वाले मयूर अपने पंखों की छाया में मुँह प्रविष्ट कर बैठे हुए साँपों को नहीं मारते (1/16), उत्कट प्यास के मारे, पराक्रम का उद्योग नष्ट कर बार-बार हाँफता हुआ दूर तक मुँह बाए हुए सिंह हाथियों को नहीं मारता (1/14), सूर्य की प्रखर किरणों से सन्तापित, नितान्त शुष्क कण्ठ से जल ग्रहण करने वाले, विकट प्यास से व्याकुल पानी पीने वाले हाथी सिंह से भी नहीं डरते (1/15), नागरमोथों से संयुक्त शुष्क पङ्क वाले तालाब को अपने विस्तृत थूथनों से उखाड़ता हुआ शूकरों का समूह सूर्य की तीक्ष्ण किरणों से सन्तापित होकर मानो पृथ्वीतल में प्रवेश सा कर रहा है (1/17), प्रचण्ड सूर्य के द्वारा सन्तापित मेढक पङ्कमय पानी वाले सरोवरों से उछलकर प्यासे सर्प के फण रूपी छाते के नीचे विश्राम करते हैं (1/18), चंचल लपलपाती दोनों जिह्वाओं से पवनपान करता हुआ सर्प अपने विषरूपी अग्नि और सूर्य के ताप से सन्तापित और प्यास से व्याकुल होकर मेढकों के समूह को नहीं मारता (1/20), परस्पर उत्पीड़न में संलग्न हाथियों द्वारा सरोवर से समस्त मृणालसमूह समुन्मूलित कर दिया गया है। मछलियाँ विपन्न और संत्रस्त कर दी गई हैं। सारसपक्षी भय से भगा दिए गए हैं। तालाब घनघोर मर्दन से कीचड़मय कर दिया गया है (1/19), फेनयुक्त चञ्चल, विस्फारित मुख
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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