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[262] (ख) 'काव्यमीमांसा' में वर्णित विदग्धगोष्ठी तथा राजचर्या
प्राचीन काल से ही विदग्धगोष्ठी काव्य विवेचन का महत्वपूर्ण केन्द्र तथा काव्य प्रचार का सबसे बड़ा साधन थीं। काव्यगोष्ठी में काव्य के आस्वादन का आनन्द विदग्ध नागरक प्राप्त करते थे। विदग्ध नागरकों की उपस्थिति के कारण ही ज्ञान, विज्ञान, मनोविनोद तथा विभिन्न कलाओं से सम्बद्ध यह मभाएँ विदग्धगोष्ठी नाम से प्रसिद्ध थीं। काव्य की पाठशाला के समकक्ष इन विदग्धगोष्ठियों में कवि प्रचार हेतु अपनी काव्य कला को रसिकों के समक्ष प्रस्तुत करते थे। अत: कवियों को यत्नपूर्वक काव्य की शिक्षा ग्रहण करनी पड़ती थी। विदग्धगोष्ठियों की महत्ता बढ़ने के साथ ही कविशिक्षा की आवश्यकता बढ़ने लगी। कवि बनने के लिए काव्यशास्त्र और काव्य की विद्याओं, उपविद्याओं का अनुशीलन एवम् काव्यविद्यागुरू से उसका अभ्यास आवश्यक माना गया। काव्यशास्त्र का पठन काव्यगोष्ठी में प्रवृत्ति की योग्यता के रूप में स्वीकृत था। यदि कोई कवि न हो अथवा उसमें काव्यविषयक पाण्डित्य न हो तो उसका विदग्धगोष्ठियों में प्रवेश असम्भव था। अत: कविशिक्षक के रूप में प्रतिष्ठित आचार्य राजशेखर ने इनमें प्रवेश की योग्यता प्राप्ति हेतु कवि को निपुण बनने के निर्देश
दिए हैं।
आचार्य राजशेखर के पूर्व भी विदग्धगोष्ठी का वात्स्यायन के 'कामसूत्र' में उल्लेख है । विदग्ध नागरक प्रतिमास अथवा प्रतिपक्ष निश्चित दिन सम्मेलन आयोजित करते थे। यह सम्मेलन 'समाज' तथा इसमें भाग लेने वाले 'सामाजिक' नाम से प्रसिद्ध थे।1 आचार्य दण्डी भी स्वीकार करते थे कि कवि उत्कृष्ट कवित्व न होने पर भी काव्यशास्त्र के अध्ययन से व्युत्पन्न होकर परिश्रम करते हुए विदग्ध
1. 'पक्षस्य मासस्य वा प्रज्ञातेऽहनि सरस्वत्या भवने नियुक्तानां नित्यं समाज: कामसूत्र (वात्स्यायन) (1/4/27)
सरस्वती च नागरकाणां विद्याकलासु अधिदेवता, तस्या आयतने नियुक्तानाम् नामकेन पूजोपचारकत्वे प्रतिपक्ष प्रतिमासम् च ये नियुक्ता: नागरकनटाद्यो नर्तितुम् तेषां समाजः स्वव्यापारानुष्ठानेन मिलनम् यस्मिन् प्रवृत्ते नागरिका: सामाजिकाः भवन्ति।
(जयमङ्गला टीका)